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निःस्पृहता
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कि मुनि - जीवन में रही निःस्पृहता नाम की वस्तु सदा-सर्वदा के लिए नष्ट हो गयी है ! उसमें उसका नामोनिशान तक नहीं बचा है ! प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि की स्पृहा साधक को आत्मभाव की प्राप्ति नहीं होने देती ! तब साधक नाममात्र के लिए ही रह जाता है, बल्कि असल में वह ग्रात्मसाधक नहीं रहता ! उसकी साधकता लुप्त हो जाती है ! और पीछे रहते हैं सिर्फ उसके भग्नावशेष ! यह शाश्वत् सत्य है कि प्रतिष्ठा - प्रसिद्धि की स्पृहा कभी तृप्त नहीं होती, बल्कि समय के साथ वह बढती ही जाती है ! और जिंदगी की आखिरी सांस तक उसे पूरा करने की कोशिश अबाध रूप से जारी रहती हैं ! परिणामस्वरूप अनात्म- रति दृढ बनती है और आत्मा, अनात्मरति की वासना को मन में संजोये परलोक सिधार जाती है !
अतः इसके लिए अच्छा उपाय यही है कि निःस्पृह बनने के लिए, मुनि अपने मुख से स्व-प्रतिष्ठा और आत्मगौरव की प्रस्तावना ही नहीं करे ।
भूशय्या भैक्षमशनं जीर्णं वासो गृहं वनम्
तथाऽपि नि:स्पृहस्याsहो चक्रिरणोऽप्यधिकं सुखम् ||७||५|| अर्थ :- ग्राश्चर्य इस बात का है कि स्पृहारहित मुनि के लिए पृथ्वी रुपी शय्या है, भिक्षा से मिला भोजन है, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र हैं और अरण्यस्वरूप घर है, फिर भी वह चक्रवर्ती से अधिक सुखी है !
विवेचन : नि:स्पृह महात्मा इस संसार में सर्वाधिक सुखी है ! फिर भले ही वह भूमि पर शयन करता हो, भिक्षावृत्ति का अवलम्बन कर भोजन पाता हो, जीर्णशीर्ण जर्जरित वस्त्र धारण करता हो और अरण्य में निवास करता हो ! वह उन लोगों से अधिक भाग्यशाली और महान् सुखी है, जो सुवर्णमंडित पलंग पर बिछे मखमल के गद्दों पर शयन करते हैं, प्रतिदिन स्वादिष्ट षड्रस का भोजन करते हैं, नित्य नये वस्त्र परिधान करते हैं और आधुनिक साधन-सुविधाओं से सज्ज गगनचुम्बी महलों में निवास करते हैं ।
निःस्पृह योगी प्रायः ऐसा जीवन पसंद करते हैं, जिसमें उन्हें कम से कम पर - पदार्थों की आवश्यकता रहती हो !' पर - पदार्थों की स्पृहा जितनी कम उतना ही सुख अधिक ! सोने के लिए पत्थर की
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