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ज्ञानसार
शिला, खाने के लिए रुखा-सूखा भोजन, शरीर ढंकने के लिए कपड़े का एकाध टकड़ा और रहने के लिए खुले आकाश के तले बिछावन ! यही सिद्ध योगी की धन-संपदा है। यदि उनमें स्पृहा है तो सिर्फ इतनी ! और दुःख क्लेश का प्रसंग कभी आ भी जाए तो इतनी स्पृहा की वजह से ही ! इससे अधिक कुछ भी नहीं !
बिचारे चक्रवर्ती का तो कहना ही क्या ? मूढ और पागल दुनिया भले ही उसे विश्व का सर्वाधिक सुखी करार दे दे, लेकिन स्पृहा की धधकती ज्वालाओं से दग्ध चक्रवर्ती अंतरात्मा के सुख से प्राय: कोसों दूर होता है ! उसके नसीब में सुख है कहां ? अगर किसी सुखऐश्वर्य की गरज है तो उसे किसी न किसी का गरजमंद होना ही पड़ता है । जैसे भोजन के लिए पाकशास्त्री का, वस्त्राभूषण के लिए नौकर-चाकर का, मनोरंजन के लिए नृत्यांगनाओं का अथवा कलाकारों का और भोगोपभोग के लिए रानी-महारानियों का मुंह ताकना पड़ता है । उनकी खुशीपर निर्भर रहना पड़ता है । नहीं तो पुण्यकर्म के प्राधीन तो सही !
परनिरपेक्ष सुख का अनुभव ही वास्तविक सुखानुभव है । जबकि पर-सापेक्ष सुख का अनुभव भ्रामक सुखानुभव है ! क्यों कि पर-सापेक्ष सुख जब चाहों तब मिलता नहीं और मिल जाए तो टिकता नहीं ! हमारे मन में सुख-त्याग की इच्छा लाख न हो, फिर भी समय आने पर जब चला जाता है तब जीव को अपार दु:ख और वेदनाएँ होती हैं और उसकी पुनःप्राप्ति के लिए प्रयत्न करने में वह कोई कसर नहीं रखता। साथ ही जब पराधीन सुख की स्पृहा जग पड़ती है तब पाप-पुण्य के भेद को भी वह भूल जाते हैं । इस की प्राप्ति हेतु वह घोर पापाचरण करते नहीं अघाते ! सीता का संभोगसुख पाने की तीव्र स्पृहा । महाबली रावण के मन में पैदा होते ही सीता-हरण की दुर्घटना घटित हुई ! और उसी स्पृहा की भयंकर आग में लंका का पतन हुआ ! असंख्य लोगों को प्राणोत्सर्ग करना पड़ा ! रावण-राज्य की महत्ता, सुन्दरता और समृद्धि मटियामेट हो गयी ! और महापराक्रमी रावण को नरक में जाना पडा ! .." मालवपति मुंज को हाथो के पैरों तले कुचलवाया गया, रौंदा गया, किस लिए ? सिर्फ एक नारी मृणालिनी के लिए ! इस संसार
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