SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनात्मशंसा २५१ ___ जिसकी जड़ मजबूत है, मूल नीचे तक भीतर उतरा है, वह वृक्ष मजबूत । यदि जड़ें ही कमजोर हैं, तो वृक्ष के ढहते देर नहीं लगेगी। वह धराशायी हुना ही समझो । सुख का विशाल वटवृक्ष पुण्य रूपी घनी जड़ों पर ही खड़ा है। क्या तुम जानते हो कि वटवृक्ष की जड़ में पानी का प्रवाह पहुँच गया है और उसके मूल बाहर दिखायी देने लगे हैं। उसके प्रासपास की मिट्टी पानी की धारा में बह गई है। क्या तुम्हें पता है ? पानी की वजह से मूल कमजोर हो गये हैं और वृक्ष खतरनाक ढंग से हिलने-डुलने लगा है। जरा अांखें खोलो, होश में आओ और ध्यान से देखो । वृक्ष कडाके की आवाज के साथ जमीन पर पा गिरेगा । उफ, इतनी उपेक्षा करने से भला, कैसे चलेगा ? क्या तुम पानी के प्रवाह को नहीं देख रहे हो ? अरे, तुमने खद ही तो नल खोल दिया है । क्या तुम अपनी प्रशंसा नहीं करते ? अपनी अच्छाईयों और अच्छे कामों का बखान नहीं करते ? अपने गुरण और प्रवृत्तियों की 'रिकार्ड' वजाते नहीं थकते ? अरे मेरे भाई ! उसी स्व-प्रशंसा का नल तुमने पुरजोश में खोल दिया है और पानी 'कल्याण-वृक्ष' की जडों तक पहुंच गया है । लो, ये मूल दिखने लगे और वृक्ष धराशायी होने की तैयारी में है। अगर एक बार 'कल्याण वृक्ष' ढह गया कि फिर तुम्हारे नसीब का सितारा डूब गया समझो । पीछे दुःख भोगने के सिवाय कुछ नहीं बचेगा । सब मिट्टी में मिल जाएगा । और तब स्व-प्रशंसा करने की घृष्टता ही नामशेष हो जाएगी। अलबत्ता, स्वप्रशंसा कर तुम्हें कुछ न कुछ खशी तो होती ही होगी और सुख का आस्वाद भी मिलता होगा । लेकिन स्व-प्रशंसा से प्राप्त आनंद क्षणभंगुर होता है । साथ ही उसका अंजाम बुरा ही होता है । क्या तुम ऐसे दुःखदायी सुख और आनंद का त्याग नहीं कर सकते ? यदि कर लोगे, तो नि:संदेह 'कल्याण-वृक्ष' स्थिर, मजबूत और दीर्घजीवी साबित होगा। फलतः उसकी डाल पर सुख के मीठे फल लगेंगे और उन फलो का आस्वाद तुम्हे अजरामर बना देता । बेशक, तब तक तुम्हें धैर्य रखना होगा। दूसरों का स्व-प्रशंसा का पानंन्द लूटते देख भूलकर भी तुम उनका अनुसरण न करना । भले ही दूसरे स्व-प्रशंसा के आनन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy