________________
२५२
ज्ञानसार
में आकठ डूब जाए, लेकिन तुम्हारे मन तो वह आनन्द प्रकल्प्य और अभोग्य ही है ।
हम अपनी प्रशंसा खुद करें, तो अच्छा नहीं लगता । आराधक प्रात्मा के लिए यह सर्वथा अनुचित और अयोग्य है कि वह नित्यप्रति अपना मूल्यांकन खुद ही करे, अपने महत्त्व का रटन/ जाप खुद ही करे और खुद ही लोगों को अपने गुण बताये । आराधक को चाहिए कि वह 'स्व-विज्ञापन' को घोर पाप समझे । मोक्ष-मार्ग का अनुगामी अपने दोष और दूसरों के गुण देखता है । जब वह अपने गुणों से ही अनभिज्ञ होता है, तब उसकी प्रशंसा (स्तुति) करने का प्रसंग ही कहाँ आता है ?
स्व.-प्रशंसा से कल्याण-वक्ष की जड़ें उखड़ जाती हैं । उसका तात्पर्य यह है कि स्वप्रशंसा करने से पुण्यबल क्षीण हो जाता है और पुण्य क्षीण होते ही सुख खत्म हो जाता है । यह निर्विवाद सत्य है कि स्वप्रशंसा सुखों का नाश करनेवाली है ।
प्रालंबिता हिताय स्युः परैः स्वगुरगरश्मयः ।
अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ ।।३।।१३९।। अर्थ :- यदि दूसरे व्यक्ति ने तुम्हारे गुण रुपी रस्सी को थाम लिया, तो
वह उसके लिए हितावह है, लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि यदि
स्वयं गुणरूपी रस्सी को थाम लिया तो भव-समुद्र में डूबा देती है। विवेचन :- तुम्हारे में गुण हैं ? उन गुणों को दूसरों को देखने दो। दूसरों को उनका गुणानुवाद करने दो । वे उक्त गुरगदर्शन, गुणानुवाद और गुरण-प्रशंसा की रस्सी को पकड़ कर भव-सागर से पार हो जायेंगे ।
लेकिन तुम अपने गुणों की प्रशंसा अथवा दर्शन करने की कोशिश भूलकर भी न करो । यदि तुम अपनी प्रशंसा खुद करने की बुरी लत में फंस गये, तो तुम्हारा बेडा संसार-सागर में गर्क होते देर नहीं लगेगी । तुम्हारी यह लत, आदत तुम्हें भवोदधि की अथाह जलराशि में डुबाकर ही रहेगी ।
वैसे देखा जाए तो गुण-प्रशंसा ऐसी शक्ति है, जो भवोदधि से तीरा सकती है और डूबा भी सकती है । हाँ, कौन किसके गुणों की प्रशंसा करता है, यह सब उस पर निर्भर है । खुद ही अपनी प्रशंसा करने भर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org