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________________ ४३७ ज्ञानसार दयाम्भसा कृतस्नानः, संतोषशुभवस्त्राभूत् । विवेकतिलकभ्राजी, भावनापावनाशयः ।।१।।२२।। भक्तिश्रद्धानधुसणोन्मिश्रपाटीरजद्रवैः । नवब्रह्माड्.गतो देवं, शुद्धमात्मानमर्चय ।।२॥२२६॥ अर्थ : दया रूपी जल से स्नात, संतोष के उज्ज्वल वस्त्र का धारक, विवेक विलक से सुशोभित, भावना से पवित्र आशय वाला और भक्ति तथा श्रद्धा-स्वरूप केसरभिधित चन्दन से शुद्ध प्रात्मारूप देव की, नी प्राकर के ब्रह्मचर्य रुपी नौ अंगों का पूजन करें। विवेचन : पूजन ? तुम्हें किस का पूजन करना है ? पूजन कर क्या प्राप्त करना है ? इस का कभी विचार भी किया है ? नहीं किया है न? तुम पूजन करना चाहते हो; अरे, तुम किसी का पूजन कर भी रहे हो...! अगणित इच्छाएँ, कामनाएँ और अभिलाषाओं को झोली फैलाकर पूजन का फल माँग रहे हो....सच है न ? लेकिन यह तो सोचो, तुम स्वयं पूजक तो हो ना? पूजारी हो न? पूजक अथवा पूजारी बने बिना तुम्हारी पूजा कभी सफल नहीं होगी, ना ही तुम्हारी मनोकामनायें पूरी होंगी । तुम्हारी आकांक्षा और अभिलाषायें सफल नहीं हो सकेंगी। तभी तो कहता हूँ, सर्व प्रथम पूजक बनो, पूजारी बनो। ___ इस के लिये पहला काम स्नानादि से निवृत्त होना है, नहाना है। अरे भाई, स्नान से पाप नहीं लगेगा। मैं भली-भाँति जानता हूँ कि तुम मनि हो और सचित्त जल के प्रयोग से पाप के भागीदार बनोगे, यह भी मेरे ख्याल से बाहर की बात नहीं है। फिर भी कहता हूँ कि स्नान कर लो। हाँ, तुम्हें ऐसा जल बताऊँगा कि जिस के उपयोग से पाप नहीं लगेगा ! ___'दया' के जल से स्नान कर । इस से भी बेहतर है-दया के स्वच्छ, शीतल जलाशय में गोता लगा ले! याद रख, सरोवर में स्नान करने का निषेध करने वाले ज्ञानी पुरुष....भी तुम्हें दयासागर में गोता लगाने से रोकेंगे नहीं और ना ही तुम्हारा मार्ग अवरुद्ध करेंगे। हाँ, जब तुम स्नान कर दयासागर के किनारे पर आप्रोगे, तब तुम्हारी प्रसन्नता का ठिकाना न रहेगा । क्रूरता का मल पूरी तरह धुल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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