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विवेक
२०३ विवेचनः आकाश स्वच्छ और सुंदर है । लेकिन उसको देखनेवाले की
आँखे तिमिर-रोग से ग्रसित होने के कारण उसे आकाश में लालपीली विविध प्रकार की रेखाए दिखायी पडती हैं और वह बोल उठता है: "आकाश कैसा चित्र-विचित्र लगता है।"
__'निश्चयनय' से प्रात्मा निर्विकार, निर्मोह, वीतराग और चैतन्यस्वरूप है ! लेकिन उसे देखने वाले की दृष्टि में क्रोधादि विकारों का रोग है। अत: क्रोधादि विकारों से युक्त अविवेकी दृष्टि के कारण उसे काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सरादि रेखाएँ दिखायी देती हैं।
और वह चीख पडता है, "देखो, जरा दृष्टिपात करो। आत्मा तो क्रोधी, कामी, विकारी और विषय-वासनाग्रस्त लगती है।'
__इस तरह निश्चयनय हमें अपने मूलस्वरूप का वास्तविक दर्शन कराते हुए अनादिकाल से घर कर बैठी अपनी ही हीन भावना को उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित करता है। वाकई में हमने अपने आपको दीन-हीन, अपंग-अपाहिज और पराश्रित-पराजित समझ लिया है। जिस तरह किसी परदेशी-शासन के नशंस अत्याचार और दमनचक्र से प्रताड़ित, कुचली गयी देहाती जनता में दीनता, हीनता और पराधीनभाव देखने में आते हैं। मानों वे उसी स्थिति में जिदगी बसर करने में ही पूरा संतोष मानते हैं। लेकिन जब एकाध क्रांतिकारी उनमें पहुँचता है और उन्हें उनकी दारूण अवस्था का सही ज्ञान देता हुआ उत्तेजित स्वर में कहता है: "अरे कैसे तुम लोग हो ? तुम यह न समझो कि यही तुम्हारी वास्तविक जिन्दगी है और तुम्हारे कर्मों ने ऐसा जीवन बीताने का लिखा है ! तुम्हें भी एक नागरिक के रूप में पूरे अधिकार हैं। तुम भी आजाद बनकर अपनी जिंदगी बसर करने के पूरे हकदार हो। और वही तुम्हारा वास्तविक जीवन है। यह परदेशी शासन/राजसत्ता द्वारा तुम पर लादा गया जीवन है । अतः उसे उखाड़ फेंको और खुशहाल जीवन जीने के लिए तत्पर बनो....।"
कर्मो की जुल्मी सत्ता के तले दबे-कूचले जानेवाले जीव, उन के द्वारा लादे गये स्वरूप को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ बैठे हैं। कर्मानुशासन को अपना अनुशासन मान लिया है। फलत: दीनता, हीनता और पराधीनता की भावना उसके रोम-रोम में बस गयी है । ऐसे में परम क्रांतिकारी परमात्मा जिनेश्वर भगवंत आह्वान करते हैं।
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