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कर्मों के रोग से प्रभावित है तब तक कम - मुक्त आत्मा के दर्शन नहीं होंगे । लाल रंग की ऐनक लगाने से सिवाय लाल ही लाल रंग के, और कुछ दिखायी नहीं देगा | वैसे ही कर्मों के प्रभाव तले रही दृष्टि से सब कर्म - युक्त ही दिखायी देगा, कर्म - रहित कुछ नहीं ।
राग - युक्त और द्वेष-प्रचुर दृष्टि क्या वीतराग को देख सकेगी ? वीतराग के शरीर को भले देख ले, लेकिन वीतराग की आत्मा को देख न पाएगी । अपनी वीतराग-ग्रात्मा का साक्षात्कार करने के लिए तो दृष्टि राग-द्वेषरहित ही होनी चाहिए ।
कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही हैं की अपनी दृष्टि को निर्मल, विमल करो । दृष्टि निर्मल करने का अर्थ है मानसिक विचारों को विमल, विशुद्ध करना । हर पल और हर घडी राग-द्व ेष के द्वंद में उलझे विचार आत्मचिंतन नहीं कर सकते । जब तक वैचारिक प्रवाह राग-द्वेष की गिरि-कंदराओं से अबाध गति से प्रवाहित है तब तक कोलाहल होना स्वाभाविक है ! आंतरिक राग-द्वेष से मुक्ति पाने हेतु पाँच इन्द्रियों पर संयम, चार कषायों पर अंकुश, पाँच प्रास्रवों से विराम और तीन दंड़ से विरति कुल सत्तरह प्रकार के संयम का पालन करना ही पडेगा । केवल बाह्य संयम नहीं, अपितु प्रांतरिक संयम ! अपनी मनः स्थिति का ऐसा सर्जन करें कि विचार विषय कषाय, आस्रव और दंड की तरफ मुड़े ही नहीं ।
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ज्ञानसार
विश्व में कदम-कदम पर उपस्थित समस्याएँ और घटनाएँ, जो अनुकूल-प्रतिकूल होती हैं, उसके प्रति हमारा मन - राग-द्वेष से भर न जाएँ, बल्कि तटस्थता धारण करें, तभी आत्म-स्वरुप को सन्निकटता संभव है । वर्ना निरंतर क्रोधादि कषाय में अंधे बने, शब्दादि विषय के प्रति आकर्षित और हिंसादि प्रस्रवों में लीन हम, विशुद्ध प्रात्मस्वरूप के दर्शन की बात करने भी क्या योग्य है वास्तव में चर्मदृष्टि में उलझे हुए अपन 'आत्म दर्शन' पर धुआँधार भाषण सुनते रहें फिर भी हम पर उसका कोई प्रभाव नहीं पडता है ।
अर्थ
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न सुषुप्तिर मोहत्वान्नापि च स्वापजागरौ । कल्पनाशिल्प विश्रान्तेस्तुयें वानुभवो दशा ॥७॥२०७॥
मोहरहित होने से गाढ़ निद्रा रुपी सुषुप्ति-दशा नहीं है, ठीक वैसे
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