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अनुभव
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ही स्वप्न और जागृत - दशा भी नहीं है । वह कल्पना रुपी कलाकौशल्य के प्रभाव के कारण, अनुभव रूपी चतुर्थ अवस्था है । विवेचन: अनुभवदशा !!!
क्या वह सुषुप्ति-दशा है ? क्या वह स्वप्न-दशा है ? क्या वह जागृत-दशा है ? ईन तीन दशाओं में से क्या किसी में भी अनुभवदशा का समावेश हो, ऐसा नहीं है ? क्यों नहीं ? आइए, इस मसले पर विचार करें ।
(i) सुषुप्ति दशा निर्विकल्प है, अर्थात् सुषुप्तावस्था में मानसिक कोई विकार अथवा विचार नहीं होता । वह इन सब से निर्लिप्त होती है । लेकिन इस अवस्था में भी आत्मा मोह के बन्धनों से मुक्त नहीं होती । प्रनुभवदशा तो मोह के प्रभाव से सर्वथा मुक्त ही होती है । फलत: अनुभव का समावेश सुषुप्ति में नहीं हो सकता ।
(ii) स्वप्न के साथ अनुभव की तुलना कर सकते है ? स्वप्न भले कितना ही भव्य, सुन्दर, मनमोहक हो.... फिर भी सिवाय कल्पना के उस में वास्तविकता का अंश भी नहीं होता । जबकि अनुभवदशा में कल्पना का अंश भी नहीं होता ! प्रत: स्वप्नावस्था में भी अनुभव का समावेश असंभव है, ना ही स्वप्नदशा को अनुभवदशा कह सकते । (iii) जाग्रतावस्था भी कल्पना-शिल्प का ही सर्जन है । उसे अनुभव दशा नहीं कह सकते । अनुभवदशा इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न चौथी दशा ही है ।
विश्व में एक वर्ग ऐसा भी है, जो 'सुषुप्ति' को प्रात्मानुभव के रूप में समझता है । उस का कहना है: “शून्य हो जानों, सभी इच्छा, आकांक्षा और अभिलाषाओं से मुक्त बन जाओ.... और ऐसी अवस्था में जिलनी अवधि तक रह सको तब तक रहो ! उस दौरान तुम्हें आत्मानुभव होगा !" सुषुप्तावस्था - गाढ निद्रा में कोई विचार नहीं होता, परंतु इस अवस्था में तुम्हारा मन मोहशून्य भी नहीं होता । अल्पावधि के लिए मोह-मायादि के विकल्पों से मुक्त हो जाने मात्र से मोहावस्था दूर नहीं हो जाती । घंटे, दो घंटे के लिए शून्यता के समुद्र में गोता लगा देने से, भीतर में घर कर गयी मोहावस्था धुल नहीं जाती । बल्कि शून्य में
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