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________________ ५० शानसार मजस्यश: किलाशाने, विष्टायामिव शकरः । ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे ॥१॥३३॥ अर्थ : जैसे सूबर हमेशा विष्टा में मग्न होता है, वैसे ही प्रज्ञानी सदा अज्ञान में ही मग्न रहता है। जैसे राजहंस मानसरोवर में निमग्न होता है, ठीक उसी तरह ज्ञानी पुरुष ज्ञान में निमग्न होता है । विवेचन : मनुष्य बार-बार कहाँ जाता है, पुनः पुनः उसे क्या याद आता है, वह किसकी संगत में अपना अधिकाधिक समय व्यतीत करता है, क्या सुनना उसको प्रिय है, क्या जानना वह पसन्द करता है ? यदि इसका सावधानी के साथ सूक्ष्मावलोकन किया जाय, तो जीवात्मा की प्रान्तरिक भावना की थाह पायी जा सकती है। उसकी सही रुचि, अनुराग का पता लग सकता है । जहाँ सिर्फ भौतिक और वैषयिक सुख-दुःख की चर्चा होती हो, पुद्गलानंदी जीवों का सहवास ही प्रिय हो, कूपदार्थों की चर्चा चलती हो, मिथ्यात्वी किस्से-कहानियाँ कही जाती हों और इन्द्रियों को तृप्त करने वाली बातें सुनना ही प्रिय हो, इससे उसकी परख होती है कि उसका सही आकर्षण भौतिक, वैषयिक पदार्थों की ओर है । उसका अनुराग काम-वासनादि सुखों के प्रति ही है । हालांकि यह सब पाकर्षण, अनुराग, चाह, भावनादि वृत्तियाँ जीवात्मा की अज्ञानता है, मोहान्धता है और उसकी अवस्था मल-मूत्र से भरे गंदे नाले में गोता लगाते एकाध सूअर जैसी है । जबकि जो ज्ञानी हैं, वास्तवदर्शी-सत्यदर्शी हैं, उनका ध्यान सदैव जहाँ प्रात्मोन्नति व आत्मकल्याण की चर्चा होती हो, उस तरफ ही जाएगा । उसे प्रात्मज्ञानी-जनों का सतत समागम ही पसन्द आएगा । उसके हृदय में आत्मस्वरूप और उससे तादात्म्य साधने की भावना ही बनी रहेगी । उसके मुंह से प्रात्मा, महात्मा एवं परमात्मा की कथायें ही सुनने को मिलेंगी । और इन्हीं कथाओं के पठन-पाठन में वह सदा खोया दिखायी देगा । जिस तरह राजहंस मानसरोवर में मुक्त मन से क्रीडा करता दृष्टिगोचर होता है । उसकी वह स्थिति सभी दृष्टि से प्रगतिपरक और उन्नतिशील होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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