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________________ १६४ ज्ञानसार मिथोयुक्तपदार्थानामसंक्रमचमत्क्रिया। चिन्मात्रपरिणामेन विदुषवानुभूयते ॥७॥१०७॥ अर्थ :- प्रापस में परस्पर मिश्रित जीव-पुद्गलादि पदार्थों का भिन्नतारुप चमत्कार, ज्ञानमात्र परिणाम के द्वारा विद्वान पुरुष अनुभव करते हैं । विवेचन : जड-चेतन तत्त्वों का यह अनादि-अनंत विश्व है ! हर जड़-चेतन तत्त्व का अस्तित्व स्वतंत्र है । उसका स्वरुप भी स्वतंत्र है। लेकिन जड़ चेतन क्षीर-नीर की तरह एक-दूसरे में घुल-मिलकर रहे हुए हैं । उक्त तत्त्वों की भिन्नता मात्र ज्ञान-प्रकाश से देख सकते हैं । प्रधानतया पांच द्रव्य [जड-चेतन] इस विश्व में विद्यमान हैं : १ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय ४ पुद्गलास्तिकाय और ५ जीवास्तिकाय । इन में आकाश द्रव्य आधार है और शेष चार द्रव्य प्राधेय हैं, यानी आकाश में स्थित हैं। फिर भी हरएक का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, स्वरुप है, और कार्य है । एक द्रव्य का अस्तित्व भूल कर भी दूसरे में विलीन नहीं होता । ठीक वैसे ही एक द्रव्य का कार्य दूसरा द्रव्य कभी नहीं करता । भिन्नता का यह चमत्कार, मनुष्य बिना ज्ञान के देख नहीं पाता । प्रत्येक द्रव्य अपना अस्तित्व बनाये रखता है, अपने स्वरुप को निराबाध/अबाध रखता है और अपने-अपने कार्य में सदा मग्न रहना है। धर्मास्तिकाय -द्रव्य अरुपी है। उसका अस्तित्व अनादि-अनंतकाल हैं और उसका कार्य है जीव को गति करने में सहायता करने का । अर्थात् प्रत्येक जीव गति कर सकता है, उसके पीछे अदृश्य सहयोग/मदद 'धर्मास्तिकाय' नामक अरूपी, विश्वव्यापी और जड ऐसे द्रव्य की होती है । 'अधर्मास्तिकाय' स्थिति में सहायता देता है । अर्थात् जीव किसी एक स्थान पर स्थिर बैठ सकता है, खड़ा रह सकता है और शयन कर . सकता है, इसके पीछे अरुपी विश्वव्यापी और जड़ ऐसे 'अधर्मास्तिकाय' की मदद होती है ! 'प्राकाशास्तिकाय' का काम है अवकाश-स्थान देने का । जब कि 'पद्गलास्तिकाय' का कार्य तो सर्वविदित ही है ! • देखिए परिशिष्ट 'पंवास्तिकाय' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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