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________________ ज्ञानसार विश्वरचना, विश्व के पदार्थ और पदार्थो के पर्यायों का परिवर्तन.... आदि का चिंतन-मनन ही 'द्रव्यानुयोग'० का चिंतन है । द्रव्यानुयोग के चिंतन-मनन से कर्म-निर्जरा (क्षय) बहुत बड़े पमाने पर होती है। मानसिक अशुभ विचार और संकल्प ठप्प हो जाते हैं। परिणामस्वरुप विश्व में घटित अद्भुत घटनाएँ, अकस्मात एवं प्रसंगोपात उत्पन्न होनेवाले आश्चर्य, कुतूहल प्रादि भाव रूक जाते हैं। प्रात्मा स्थितप्रज्ञ बन जाती है। अतः हे मुनिराज ! तुम अपने शास्त्रचक्ष खोलो । साथ ही ये मुंद न जाएं, बंद न हो जाएं इसकी सदैव सावधानी रखो। शास्त्रचक्षु का दर्शन अपूर्व प्रानन्द से भर देगा। शासनात् त्राणशक्तेश्च बुधः शास्त्र निरुच्यते ! वचनं वीतरागस्य तत्तु नान्यस्य कस्यचित् ॥३॥१८७॥ अर्थ : हितोपदेश करने के साथ साथ उसकी रक्षा के सामर्थ्य से पडितगण 'शास्त्र' शब्द की व्युत्यत्ति करते हैं। अतः उक्त शास्त्र को वीतराग का वचन कहा जाता है। अन्य किसी का नहीं । विवेचन : वीतराग का वचन अर्थात् शास्त्र ! रागी और द्वषी व्यक्ति के वचन 'शास्त्र' नहीं कहलाते। ऐसा व्यक्ति कितना भी दिग्गज विद्वान् हो, कुशाग्र बुद्धि का धनी हो, लेकिन वीतराग-वाणी की अवहेलना कर स्वयं की कल्पना एवं मान्यतानुसार ग्रन्थों का आलेखन करता हो, उसे शास्त्र नहीं कहते । क्यों कि कोई भी शास्त्र क्यों न हो, वह प्रात्म-हित का उपदेश करता है । सभी जीवों की रक्षा-सुरक्षा का आदेश देता है। शब्दशास्त्र के अनुसार 'शास्त्र' शब्द के निम्नांकित दो अर्थ ध्वनित होते हैं : शासनसामर्थेन च संत्राणवलेनानवोन ! युक्तं यत् तच्छास्त्रं तच्चतत् सर्वविद्वचनम् ॥ -प्रशमरति 'शास्त्र वही है, जिसमें हितोपदेश देने का सामर्थ्य और निर्दोष जीवों की रक्षा की अपूर्व शक्ति हो, और वही सर्वज्ञ का वचन है, ० देखिए परिशिष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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