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________________ ७४ उसमें मर्कट- चेष्टाओं का संचार होता है और वह पराधीन वन संसार के बाजार में इधर-उधर भटकता रहता है । ज्ञानसार जीव जिस अनुपात से इच्छित विषयों का खाद्य देकर अपनी इन्द्रियों का पोषण करता रहता है, उसी गति से आत्मा में दुष्ट, मलीन और निकृष्ट विकार अबाध रूप से परिपुष्ट होते रहते हैं । जीवात्मा पर मोह-मूर्च्छा का शिकंजा कस जाता है । परिणाम स्वरूप वह मन-वचन काया से विवेक भ्रष्ट बन असीम दुःख और अपार प्रशान्ति का शिकार बन जाता है । तब इस दुःख और शान्ति को दूर करने के लिए किसी जुमारी की तरह दुबारा दांव लगाता है । फिर से इन्द्रियों को खुश करने का भरसक प्रयत्न करता है । लेकिन आखिर में परिणाम शून्य ही आता है । उसकी हर कोशिश बेकार सिद्ध होती है और आन्तरिक दुःख अशान्ति घटने के बजाय उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है । परिणाम यह होता है कि दारुण दुःख और घोर अशान्ति के प्रहार सहन न कर पाने के कारण मृत्यु-भाजन बन जाता है । नाना प्रकार की दुर्गतियों में फँस कर नरक के गहरे कुए में धकेल दिया जाता है । अतः जीसको विकारों के विष वृक्ष से अपने आप को बचाना हो, उसे विषय लालसा और विकारों को पुष्ट करने की वृत्ति पर रोक लगानी चाहिए | और मन ही मन दृढ़ संकल्प धारण कर, विषय-पोषण के बजाय जीवन के लिये परम सन्जीवनीस्वरूप सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र को पुष्ट करने की प्रवृत्ति में दत्ताचित्त होना चाहिए । सरित्सहस्रदुष्पूरसमुद्रोदरसोदरः । तृप्तिमान्नेन्द्रियग्रामो भव तृप्तोऽन्तरात्मना ।। ३ ।। ५१ ।। श्रर्थ : यह जानकर कि असंख्य नदियों के द्वारा भी समुद्र के उदर समान इन्द्रिय-समूह को तृप्त नहीं कर सकते, हे वत्स ! ग्रन्तरात्मा से सम्यक् श्रद्धा का मार्ग अपनाकर अपने ग्राम को तृप्त कर । विवेचन : गंगा-यमुना और ब्रह्मपुत्रा जैसी असंख्य नदियाँ निरन्तर समुद्र के उदर में समाती रहती हैं, अपनी प्रथाह जलराशि उंडेलती हैं । फिर भी समुद्र कभी तृप्त हुग्रा ? उसने अनमने भाव से नदियों को क्या कह दिया कि - "बस हो गया, तुमने मुझे तृप्त कर दिया । अब तुम्हारी जरूरत नहीं है ।" मतलब, वह तृप्त नहीं हुआ और ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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