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ज्ञानसार
आत्मानं विषयः पार्भववासपराङ मुखम् ।
इन्द्रियाणि निबध्नन्ति, मोहराजस्य किकरा: ॥४॥५२॥ अर्थ : मोह राजा की दास इन्द्रियाँ सांसारिक क्रिया-कलापों से सर्वथा उद्विग्न
बने प्रात्मा को विषय रुपी बंधनों में जकड़ रखती हैं । विवेचन : इन्द्रियों को कोई सामान्य वस्तु समझने की गलती न कर बैठना । वे दिखने में भले ही सीधी-सादी, भोली लगती हों, लेकिन अपने आप में असामान्य हैं । वे तुम्हारी भक्त नहीं हैं, सरल नहीं हैं, बल्कि मोहराजा की अनन्य आज्ञांकित सेविकायें हैं। मोहराजा ने अपनी इन स्वामी-निष्ठ सेविकाओं के माध्यम से अनंत जीवराशि पर अपना साम्राज्य फैला रखा है !
जो जीवात्मा संसारवास से, मोहराजा के अटूट बन्धन से त्रस्त होकर धर्मराजा की ओर आगे बढ़ता है, उसे ये बीच में ही रोक लेती है और पुनः मोह के साम्राज्य में खींच लाती हैं । वे अपने जादुई-पाश में जीव को ऐसी तो कुशलता से गुमराह कर देती हैं कि जीव को कतई पता नहीं लगता कि वह इन्द्रियों के जादुई पाश में बुरी तरह से फंस गया है । अन्त तक वह इसी भ्रम में होता है कि 'वह धर्मराजा के साम्राज्य में है ।'
विषयाभिलाष-यह इन्द्रियों का जादुई पाश है, अनोखा जाल है। इन्द्रियाँ जीव से विषयाभिलाष कराती हैं, उसे नाना तरह से समझाबुझाकर विषयाभिलाष करने प्रेरित करती हैं । 'स्वास्थ्य अच्छा होगा, तो धर्मध्यान अच्छी तरह कर पाएगा। अत: अपने स्वास्थ्य और शरीर का वराबर खयाल कर !' पागल जीव उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाता है और शरीर-संवर्धन के लिये बाह्य-पदार्थों की निरन्तर स्पृहा करने लगता है । 'तुम्हारे तपस्वी होने से क्या हो जाता है ? यदि पारणे में घी, दूध, सूखा मेवा, मिष्टान्नों का उपयोग नहीं करोगे तो ठीक से तपस्या नहीं कर पाओगे ।' भोला मन इन्द्रियों की इस सलाह के बहकावे में आ जाता है और वह रसना का अभिलाषी बन जाता है । 'तुम ज्ञानी हो इससे क्या ? स्वच्छ वस्त्र परिधान करो। शरीर को निर्मल रखो । घोर तपस्या न करो। इससे दुनिया में तुम्हारी धाक जमेगी, सर्वत्र बोलबाला होगा ।' सरल प्रकृति के जीव
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