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ज्ञानसार
प्र० स्वसंवेदनसिद्ध ज्ञानगुण का गुणी शरीर को मानो तो ?
उ० गुण के अनुरुप गुणी होना चाहिये । ज्ञान गुण अमूर्त और चिद्रुप है। सदैव इन्द्रियविषयातीत है ! गुणी भी उसके अनुरूप होना चाहिये । वह जीव है, देह नहीं । जो अनुरूप न हो, अगर उसे भी गुणी माना जाय तो अनवस्था दोष आता है। तो फिर रुप-रसादि गुणों के गुणी के रुप में आकाश को भी मान लेना चहिये !
- घट....पटादि कार्यों से पुद्गला स्तिकाय का अस्तित्व तो प्रत्यक्ष ही है ।
१४. कर्मस्वरुप अनादि अनंत काल से जीव कर्मों से बंधा हुआ है । जीव और कर्म का संबंध अनादि है। इससे जीव में अज्ञान, मोह, इन्द्रिय विकलता, कृपणता, दुर्बलता, चार गतियों में परिभ्रमण, उच्च-नीचता, शरीरधारिता वगैरह अनंत प्रकार की विचित्रता दृष्टिगोचर होती है।
प्रत्येक जीव के कर्म अलग अलग होते हैं । अपने कर्म के अनुसार जीव सुख-दुःख और दूसरी विचित्रताओं का अनुभव करते हैं। जीवों के बीच ज्ञान, शरोर, बुद्धि, आयुष्य, वैभव, यश-कीति वगैरह सैंकड़ों बातों की विषमता का कारण कर्म है। कर्म कोई काल्पनिक वस्तु नहीं, परन्तु यथार्थ पदार्थ है और उसका पुद्गलास्तिकाय में एक द्रव्यरूप में समावेश है।
_ 'कर्म के मुख्य आठ भेद हैं । श्री प्रशमरतिप्रकरण में कहा है : स ज्ञानदर्शनावरणवेद्य-मोहायुषां तथा नाम्नः । गोत्रान्तराययोश्चेति कर्मबन्धोऽष्टधा मौल: ॥३४॥ नाम
अवांतर-भेद १-ज्ञानावरणीय
२-दर्शनावरणीय 1आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्त रायाः । तत्वार्थ अ० ८, सूत्र५
पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिकश्चतु पटकसप्तगुणभेदाः । द्विपञ्चभेद इति सप्तनवति भेदास्तथोत्तरतः ।।३५।।। __ ----प्रशमरतिप्रकरणे पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिद्विचत्वारिंशद द्विपञ्च भेदा यथाक्रमम् । -तत्वार्थ अ०५, सूत्र ६
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