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________________ कर्मस्वरुप ४७ ३-वेदनीय ४-मोहनीय ५-आयुष्य ६-नाम ७-गोत्र ८-अंतराय ६७ प्रत्येक कर्म का आत्मा पर भिन्न-भिन्न प्रभाव होता है । आत्मगुण आवरण प्रभाव अनन्त केवलज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सुख क्षायिक चारित्र ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय अज्ञानता अंधापन, निद्रा....आदि सुख-दुःख क्रोधादि, हास्यादि पुरुषवेदादि, मिथ्यात्व चारगति में भ्रमण शरीर, यश-अपयशादि तीर्थकरत्वादि उच्च-नीचता कृपणता, दुर्बलता वगैरह अक्षय स्थिति अमूर्तता आयुष्य नाम अगुरुलघुता अनन्तवीर्य गोत्र अंतराय कर्मबन्धः ___ ज्ञानावरणीयादि कर्म पुद्गलों से आत्मा का बंधना अर्थात् परतंत्रता प्राप्त करना उसे 'बंध' कहते हैं । कर्मबंध पुद्गल-परिणाम है। आत्मा का एक-एक प्रदेश अनंत-अनंत पुद्गलों से बंधा हुआ है । अर्थात् आत्मप्रदेश और कर्मपुद्गल अन्योन्य ऐसे मिल गये हैं कि दोनों का एकत्व हो गया है । जिस प्रकार से क्षीर और नीर का एकत्व हो जाता है। 1 'बध्यते वा येनात्मा-अस्वातन्त्र्यमापाद्यते ज्ञानावरणादिना स बन्धः पुद्गलपरिणामः ।' -तत्त्वार्थ-टीकायां, श्री सिद्धसेनगणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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