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________________ क्रिया १०५ है । साथ ही उनके प्रति अनन्य प्रीति-भाव धारण करने से हमारे शुभ भावों में निरन्तर वृद्धि होती रहती है । ६. सुसाधु-सेवा : मोक्षमार्ग के अनुकूल आचरण रखने वाले साधु पुरुषों की आहार, वस्त्र, जल, पात्र, औषधादि से उत्कट सेवा और भक्ति करनी चाहिए । ७. उत्तर गुरण श्रद्धा : पञ्चवखारण, गुरुवन्दन, प्रतिक्रमण, तप त्याग, विनय विवेक आदि विभिन्न शुभ- क्रियाओं में सदा-सर्वदा प्रवृत्तिशील रहना चाहिये । इस तरह की प्रवृत्ति से सम्यग्ज्ञानादि, संवेग-निर्वेद आदि भाव नष्ट नहीं होते और जिनमें ये प्रगट नहीं हुए हैं, उनमें वे भाव पैदा होते हैं । और अन्तिम ध्येय स्वरूप परमानंद की प्राप्ति होती है । क्षायोपशमिके भावे, या क्रिया क्रियते तया । पतितस्थापि तद्भावप्रवृद्धिर्जायते पुनः || ६ ॥७०॥ अर्थ : क्षायोपशमिक भाव में जो तपसंयम युक्त क्रिया की जाती है, उसके माध्यम से गिरी हुई जीवात्मा में पुनः उस भाव की वृद्धि होती है । विवेचन : आत्मविशुद्धि की साधना यानी नगाधिराज हिमालय की ऊँची पर्वत श्रेणियों का आरोहरण ! यह कार्य अत्यन्त कठिन और दुष्कर है ! सजग आरोहक भी यदि सावधानी न बरते और सूझ-बूझ से काम न ले तो कभी-कभार फिसलते देर नहीं लगती । इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है, बल्कि आश्चर्य और अचरज तब होता है, जब गहरी खाई में गिरा आरोहक पुनः दुगुने उत्साह से और अपूर्व जोश से गिरिआरोहण करने का साहस करता है, पुरुषार्थ करता है । ऐसे आत्मविशुद्धि के भावशिखर पर आरोहण करते हुए फिसलकर गिरे, पतन की गहरी खाई में दबे आराधक की निराशा को परमाराध्य उपाध्यायजी महाराज पूरी तरह दूर करके उसे पुनः श्रारोहण के लिये सन्नद्ध करते हैं । उसका स्पष्ट शब्दों में मार्ग-दर्शन करते हैं । यदि ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय कर्मों के क्षयोपशम से तप और संयम के अनुकूल क्रिया करने लगे, तब निःसंदेह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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