________________
१०४
ज्ञानसार
की रक्षा हेतु श्री राम ने हँसते-हँसते अयोध्या का राजा त्याग कर वनवास की राह पकडना पसन्द किया था ।
१. व्रत का स्मरण :- जब हमारे शुभ भावों पर अशुभ भावों का आक्रमण होता है, तब हमें अंगीकृत व्रत / प्रतिज्ञा का सतत स्मरण करना चाहिये । फलतः आत्मा में ऐसी अजेय शक्ति का प्रादुर्भाव होता है कि जिसके बल से, आधार से, अशुभ भावों को भगाने में क्षरण का भी विलंब नहीं लगता । झांझरिया मुनि पर जब कामोन्मत्त सुन्दरी ने आक्रमण किया था, तब मुनिवर ने शान्त-चित्त से यही कहा था :
मन-वचन-काया से ग्रहित, लिया व्रत नहीं भंग करूँ ।
अविचल रहूँ ध्रुव सा निज तप में पुन: संसार का न मोह धरु ॥
२. गुणशालियों का सम्मान :- गुणशाली का मतलब है शुभ भावनाओं के शस्त्रास्त्रों से सज्ज सैनिक ! इनके प्रति अगाध श्रद्धा, परम भक्ति और अपार प्रीति भाव रखने से संकट काल में वे हमारी सहायतार्थ दौड़े आते हैं और हमारे आत्मधन की रक्षा करते हैं ।
३. पाप - जुगुप्सा : हमने जिन पापों का परित्याग कर दिया है, उनके प्रति कभी किसी प्रकार का श्राकर्षण पैदा न हो । मोह की सुप्त भावना उत्पन्न न हो जाए, अतः सदैव उन पापों से घृणा करनी चाहिए । उनके सम्बन्ध में हमारे मन में नफरत की चिंगारी सुलगनी चाहिए । जिस तरह ब्रह्मचारी के दिल में अब्रह्म की पाप-क्रिया से नफरत होती है ।
४. परिणाम - आलोचन : पाप-क्रिया से होने वाले परिणाम और धर्म - क्रिया के परिणाम पर हमें निरन्तर विचार करना चाहिये, चिन्तनमनन करना चाहिये । 'दुःखं पापात् सुखं धर्मात्' सूत्र स्मृति में रहना चाहिए ।
५. तीर्थंकर भक्ति: देवाधिदेव तीर्थंकर भगवान का नामस्मरण, दर्शन-पूजन और उनके अनन्त उपकारों का सतत स्मरण - चिन्तन जरूरी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org