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ज्ञानसार
हेतु अनार्य देश का भ्रमण किया था । क्यों कि उनके मन में कर्म-रिपुओं का भय दूर करने की उत्कट भावना थी। उन्होंने शिकारी कुत्तों का उपसर्ग सहन किया....ग्वालों ने उनके चरणांबुज को चुल्हा बनाकर खीर पकायी, लेकिन वे मौन रहकर सब सहते रहे....। अनार्य पुरुषों के प्रहार और असह्य वेदना, कष्ट और यातनाये सहते हुए उफ तक नहीं को । ऐसे तो अनेकानेक उपसर्ग शान्त रह, सहते रहे। उन्हें किसी तरह का भय महसूस न हुआ। अरे, औषधि के सेवन में भला, भय किस बात का ?
शारीरिक रोगों के उपचार हेतु लोग बंबई-कलकत्ता नहीं जाते ? वहाँ डाक्टर शल्य-चिकित्सा करता है, हाथ-पाँव काटता है अाँख निकालता है, पेट चीरता है....अओर भी बहुत कुछ करता है। लेकिन रोगी को उसकी इस क्रिया / विधि से कतइ डर नहीं लगता। वह खुद स्वेच्छा से चीर-फाड कराता है। क्योंकि वह बखूबी जानता है कि इससे उसका दर्द और बोमारी दूर होने वाली है; रोग-निवारण का यही एक सरल, सुगम मार्ग है।
तब भला खंधक मुनि राजकर्मचारियों द्वारा अपनी चमड़ी छिलते देख भयभीत क्यों होते ? उन पर रोष किसलिये करते ? उन्हें तो यह महज एक शल्य-क्रिया लगी। उस क्रिया से भव के भय का निवारण जो हो रहा था।
अवंति सूकूमाल ने खुद ही सियार को अपना शरीर चीरने-फाड़ने दिया, उसे भरपेट खाने दिया, खून का पान करने दिया । आखिर क्यों? वह इसलिए कि उस से उन का भवरोग जो मिटने वाला था । मेतारज मुनि ने सुनार को अपने सिर पर चमड़े की पट्टी चुपचाप बांधने दी.... जरा भी विरोध नहीं किया । क्योंकि उस से उन के भवरोग के भय का निवारण होने वाला था ।
__भगवान महावीर ने ग्वाले को कान में कील ठोकने दिया, संगम को काल-चक्र रखने दिया,...गोशालक की अनाप-शनाप बकवास सहन की । इसके पीछे एक ही कारण था : ये सारी क्रियायें उनके भवरोग को मिटाने वाली रामबाण औषधियाँ जो थी ।
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