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________________ भवोद्वग ३२३ स्थिर हो सकता है अथवा नहीं ?" तबसे वह मन की स्थिरता का उपाय आत्मसात् कर गया। अनन्त जन्म-मृत्यु के भय से साधु अपनी चारित्र-क्रिया में निरन्तर एकाग्रचित्त होता है। हाँ, उसे असार संसार का भय अवश्य हो । राधावेध साधने वाला कैसी एकाग्रता का धनी होता है! उसे नीचे पानी से लबालब भरे कुण्ड में देखना होता है और ऊपर स्तंभ के सिरे पर निरन्तर घूमती पुतली की, कुण्ड में पडती छाया की दिशा में, निशाना ताक, उसकी एक आँख बिंधनी होती है। इसके लिये कैसा एकाग्रता चाहिये ? राजकुमारियों का पाणिग्रहण करने के इच्छुक नरपुंगवों को ऐसे राधावेध की कसौटी पर अपनी बुद्धि, बल और एकाग्रता की परीक्षा देनी पड़ती थी ! इसी तरह का आदेश, श्री जिनेश्वर भगवान ने शिवसुन्दरी का पाणिग्रहण करने के लिये, आवश्यक संयमपाराधना में एकाग्रता लाने हेतु दिया है। एकाग्र-चित्त हुए बिना संयम की मंजिल पाना असंभव है। विषं विषस्य वहुनेश्च. वह्निरेव यदौषधम् ।। तत्सत्यं भयभीतानामुपसमऽपि यन्न भी: ॥७॥१७५।। अर्थ :- विष की दवा विष और अग्नि की औषधि अग्नि ही है। इसीलिए मसार से भयभीत जीवों को उपसर्गों के का. ण किसी बात का डर नहीं होता। विवेचन :-यह कहावत सौ फीसदी सच है : 'विष की दवा विष और अग्नि को औषधि अग्नि'। विष यानी जहर । जहर का भय दूर करने के लिये जहरीली दवा दी जातो है। उस से तनिक भो डर नहीं लगता। ठीक उसी तरह अग्नि-शमन के लिए अग्नि की औषधि देने में भय नहीं लगता। तब भला संसार का भय दूर करने के लिये उपसर्गों की औषधि सेवन करने में कर बात का भय ? अत : धीर-वीर मुनिवर उपसर्ग सहने के लिये अपने-पाप तैयार होते हैं, उन्हें गले लगाने के लिये खुद कदम आगे बढ़ाते हुए नहीं घबराते । भगवान् महावीर ने श्रमण-जीवन में नानाविध उपसर्ग सहने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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