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ज्ञानसार
हवेलियाँ और बजार सजाने का प्रादेश दिया। निर्धारित मार्ग पर रुपरंग की अंबार सुन्दरियों को तैनात कर दिया । कलाकारों को अपनी कला सरे-ग्राम प्रदर्शित करने की आज्ञायें जारी की। सारे नगर का नजारा ही बदल गया ।
निर्धारित समय पर वह लबालब भरा तेल-पात्र लिये अपने प्रावास से निकला । राज-कर्मचारी भी उसके साथ ही थे। वह हाट-हवेली और बाजार से गुजरता है, लेकिन उसका सारा ध्यान तैल-पात्र के अतिरिक्त कहीं नहीं । दुकानों की सजावट उस का ध्यानाकर्षण नहीं करती। नाट्य-प्रसंग उसके मन को ललचाने में असफल बनते हैं। रूपसियों का देह-लालित्य और नेत्र-कटाक्ष उसे कतइ विचलित नहीं कर पाते । उस की दृष्टि केवल अपने तैल-पात्र पर ही है। इस तरह वह सकुशल राजमहल पहुंचता है। महाराजा को विनीत भाव से वन्दन कर एक और नतमस्तक खड़ा हो जाता है।
"तैल की बूंद तो कहीं गिरी नहीं ना ?" "जी नहीं !"
राजा ने राजकर्मचारियों की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा। उन्होंने भी मौन रहकर उसके कथन को पुष्टि की । तब राजा ने कहा : "लेकिन यह कैसे सभव है ? सरासर असंभव बात है। आज तक विश्व में जो बनी नहीं, ऐसी अनहोनी बात है। मन चंचल है। वह इधरउधर देखे बिना रह ही नहीं सकता। और इधर-उधर देखने भर की देर है कि तैल-पात्र छलके बिना रहेगा नहीं।''
"राजन ! मैं सच कहता हूँ। मेरा मन सिवाय तेल-पात्र के कहीं नहीं गया....दूसरा कोई विचार दिमाग में आया ही नहीं।" उसने मंद, लेकिन दृढ़ स्वर में कहा ।
"क्या मन किसी एक वस्तु में एकाग्र बन सकता है ?"
"क्यों नहीं ? यह शत-प्रतिशत संभव है। मेरे सिर पर जब साक्षात् मृत्यु झूल रही थी, तब मन भला एकाग्र क्यों नहीं होता ?',
"तब फिर जो साधु / मुनि और साधक निरन्तर मृत्यु के भय को अपनी आँखों के आगे साक्षात् देखते हों, उनका मन चारित्र में
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