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ज्ञानसार
ब्रह्मचर्य के अमृत-कुण्ड में आप कैसे अपूर्व आहलाद का अनुभव कर रहे हैं । इस पाहलाद का वर्णन कैसे किया जाए और किन शब्दों में किया जाए ? साथ ही यह बात वर्णनयोग्य ही कहाँ है ? अपितु गोता लगाकर अनुभव करने की बात है ! सचमुच, आप ब्रह्मचर्य के अमृतकुण्ड के अधिपति हैं, अधिनायक है और हैं स्वामी ! इस आनन्द की तुलना में विषयसुख की केलि-क्रीडा का आनन्द तुच्छ है, नहींवत् है, असार है ।
क्षमा यानी पृथ्वी....! सारे भूतल पर यह लोकोक्ति सर्वविदित है : 'शेषनाग पृथ्वी को धारण किये हुए हैं !' संभव है यह लोकोक्ति सत्य न हो, लेकिन हे मुनिन्द्र, आपने तो सचमुच क्षमा-पृथ्वी को धारण कर रखा है ! क्षमा ऑपके सहारे ही टिकी हुई है । ___कैसी पाप की क्षमा और सहनशीलता ! वास्तव में वर्णनातीत है। गुरुदेव चंडरूद्राचार्य अपने नवदीक्षित शिष्य श्रमण के लुचित मस्तक पर दंडप्रहार करते हैं, लेकिन नवदीक्षित मुनि शेषनाग जो ठहरे ! उन्होंने क्षमा धारण कर रखी थी। दंड-प्रहार की मार्मिक पीडा के बावजूद उन्होंने क्षमा-पृथ्वी को जरा भी हिलने नहीं दिया । उन्होंने सहनशीलता की पराकाष्ठा कर दी। शेषनाग अगर यों दंडप्रहार से भयभीत हो जाए, विचलित हो जाए, तो भला पृथ्वी को कैसे धारण कर सकेगा ? फलतः नवदीक्षित मुनिराज अल्पावधि में ही केवलज्ञानी बन गये ।
ब्रह्मचर्य और सहनशीलता ! इनके पालन और रक्षा के कारण मुनि शेषनाग हैं ।
" में शेषनाग हूँ, नागेन्द्र हूँ।" की सगर्व स्मृति-मात्र से ब्रह्मचर्य में दृढता और सहनशीलता में परिपक्वता का प्रादुर्भाव होता है ।
मनिरध्यात्मकलासे विवेकवृषभस्थितः । शोभते विरतिज्ञप्तिगंगागौरीयुतः शिवः ॥५॥ १५७॥ अर्थ : मुनि अध्यात्मरुपी के लाश के उपर और विवेक ( सद्-असद् के
निर्णयस्वरुप) रुपी वृषभ पर बैठ, चारित्रकला एव ज्ञान कला स्वरूप गंगागौरी सहित महादेव की भांति सुशोभित है।
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