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________________ सर्व समृद्धि नवब्रह्मसुधाकुण्ड - निष्ठाषिष्ठायको मुनिः । नागलोकेशवद् भाति क्षमां रक्षन् प्रयत्नतः ॥ ४ ॥ १५६ ॥ अर्थ : नौ प्रकारके ब्रह्मचर्य रूपी प्रमृत-कुण्ड की स्थिति के सामर्थ्य से स्वामी और प्रयत्न से सहिष्णु वृत्ति के धारक मुनिराज हूबहू नागलोक के स्वामीवत् शोभायमान है । २८५ विवेचनः मुनीश्वर ! आप शेष नाग हैं, नागलोक के प्रधिपति हैं । आश्चर्यचकित न हों । साथ ही इन बातों को नीरी कल्पना न समझें ! सचमुच श्राप नागेन्द्र हैं । ब्रह्मचर्य का अमृत-कुण्ड आप का को आप अपने उपर धारण किए हुए हैं । हुई है । अब बताइए आप नागेन्द्र हैं या आपकी खुशामद अथवा चापलूसी नहीं कर हम रिझाना नहीं चाहते । बल्कि वह बात कर रहे हैं । निवास स्थान है । क्षमा पृथ्वी वह आप के सहारे टिकी नहीं ? सच मानिए, हम कर रहें हैं । व्यर्थ की प्रशंसा जो वास्तविकता है, यथार्थ है, वाकइ आप ब्रह्मचर्य के नौ नियमों का पालन कर, मन-वचन और काया के योग से ब्रह्मचर्यं के अमृत कुण्ड में रमण करते हैं, केलिक्रीडा करते हैं । १. स्त्री, पुरूष और नपुंसक का जहाँ वास है वहीं आप नहीं रहते । २. स्त्रीकथा नहीं करते । ३. जहाँ स्त्रीसमुदाय बैठा हो, वहाँ आप नहीं बैठते । ४. दीवार की दूसरी ओर हो रही स्त्री-पुरूष की राग चर्चा अथवा प्रेमालाप श्राप नहीं सुनते और ऐसे स्थान को छोड़ देते हैं । ५. सांसारिक अवस्था में की हुई कामक्रीडा का कभी स्मरण नहीं करते । Jain Education International ६. विकारोत्तेजक पदार्थः घी, दूध, दहीं, मलाई मिष्टान्न आदि का कभी सेवन नहीं करते । ७. प्रति प्रहार नहीं करते, यानी ठूंस ठूंस कर खाना नहीं खाते ! ८. शरीर को सुशोभित नहीं करते । ६. स्त्री के अंगोपांग को एकटक नहीं निहारते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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