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भावपूजा
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हे पूजारी । तुम शुद्ध आत्म-स्वरूप की ओर अभिमुख हो गये; दया, संतोष, विवेक, भक्ति और श्रद्धा से तरबतर हो गये। अब तो ब्रह्मचर्यपालन तुम्हारे लिए सरल हो गया। प्रब्रह्म की असह्य दुर्गन्ध तुम सह नहीं सकोगे । तुम्हारी दृष्टि रूप-पर्याय में स्थिर होना संभव नहीं; ना ही शरोर-पर्याय में लुब्ध । बल्कि तुम्हारी दृष्टि सदा-सर्वदा विशुद्ध प्रात्म-द्रव्य पर ही स्थिर होगी । फिर भला, नारी-कथायें सुनना और सूनाना, उनके आसन पर बैठना और नर-नारी की काम-कहानियाँ, कान लगाकर सुनने का तुम्हारे जीवन में हो ही नहीं सकता। मेवा-मिठाई, छप्पन प्रकार के भोग और रसीले फलों का स्वाद लूटने की महफिलें जमाना अथवा मिष्ट भोजन पर अकाल-पीडितों की तरह टूट पड़ना, हाथ मारने का तुम्हारी कल्पना में हो ही नहीं सकता। शरीर का श्रृंगार कर या अन्य जीवों को अपनी ओर आकर्षित करने का ख्याल स्वप्न में भी कहाँ से हो ?
हे प्रिय पूजक ! पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने न जाने हमें कैसा रोमांचकारी पूजन बताया है ? यह है भाव-पूजन । यदि हम दीर्घावधि तक सिर्फ द्रव्य-पूजन ही करते रहें और एकाध बार भी भाव-पूजन की ओर ध्यान न दिया, तो क्या हम पूर्णता के शिखर पर पहच सकेंगे ? अतः हमें यह दिव्य-पूजन नित्य प्रति करना है।
किसी एकान्त, निर्जन भू-प्रदेश पर बैठ, पद्मासन लगा कर और आँखें मंद कर पूजन प्रारंभ करो। फिर भले ही इसमें कितना भी समय व्यतीत हो जाए, तुम इसकी तनिक भी चिन्ता न करो। शुद्ध आत्मद्रव्य का घंटों तक पूजन-अर्चन चलने दो। फलतः तुम्हें अध्यात्म के अपूर्व प्रानन्द का-पूर्णानन्द का अनुभव होगा। साथ ही तुम साधनापथ का महत्त्व और मूल्य समझ पाओगे। भाव-पूजा की यह क्रिया कपोलकल्पित नहीं है, बल्कि रस से भरपूर कल्पनालोक है । विषयविकारों का निराकरण करने का प्रशस्त पथ है।। स्नान से लगाकर नवांग-पूजन तक का क्रम ठीक से जमा लो।
क्षमापुष्पलजं धर्मयुग्मक्षौमद्वयं तथा।
ध्यानाभरणसार च, तदङने विनिगेशय ॥३॥२२७॥ अर्थ :- क्षमा रुपी फूलों की माला, निश्चय और व्यवहार-धर्म रुपी दो वस्त्र
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