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२२. भवोद्वेग
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हे भव-परिभ्रमण के रसिक जीव ! तनिक इस संसा-समुद्र की ओर तो दृष्टिपात कर । इसकी विभीषिका और भीषणता का तो दर्शन कर। इसकी निःसारता एवं भयानकता का तो ख्याल कर । क्या तू यहाँ सुखी है ? शान्त है ? संतुष्ट है ?
पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने यहाँ भव-समुद्र की भयंकरता को समझाने का प्रयत्न किया है...। तुम इस अध्याय को ऊपरी तौर से पढ़ मत जाना, बल्कि पूरे गांभीर्य से पढकर यथायोग्य चिन्तन करना ।
भव-बधनों की विषमता और असारता से मुक्ति पाने हेतु जिस अदम्य उत्साह, र शक्ति और जिज्ञासा की आवश्यकता है,
वह सब तुम्हें प्रस्तुत अष्टक के चिन्तन मनन से निःसंदेह प्राप्त होगा ।
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