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________________ ३१४ ज्ञानसार यस्य गंभीरमध्यस्याज्ञानवमयं तलम् । रुद्धव्यसनशैलोधैः, पन्थानो यत्र दुर्गमा: ॥१॥१६६॥ पातालकलशा यत्र मृतास्तृष्णामहानिलः । कषायाश्चित्तसंकल्पवेलावृद्धि वितन्वते ॥२॥१७०॥ स्मरौर्वाग्निज्वलत्यन्तर्यत्र स्नेहेन्धनः सदा । यो घोररोगशोकादिमत्स्यकच्छपसंकुलः ॥३॥१७१॥ दुर्बुद्धिमत्सरद्रोहैविद्युतिगजितैः । यत्र संयात्रिका लोकाः, पतन्त्युत्पातांकटे ॥४।।१७२।। ज्ञानी तस्माद् भवांभोधेनित्योद्विग्नोऽतिदारुणात् । तस्य संतरणोपायं, सर्भयत्नेन काङ्क्षति ॥५॥१७३॥ अर्थ : जिसका पव्यभाग गभीर है, जिसका (मय समुद्र का ) गेंदा (तलभाग) अज्ञान रूपी वज से बना हुआ है, जहां सकट और अनिष्ट रूपी पर्वतमालाओं से घिरे दुर्गम मार्ग हैं । जहां (संसार-समुद्र में) तृष्णा स्वरुप प्रचंड वायु से युक्त पाताल कलश रूपी चार कषाय, मन के संकल्प रुपी ज्वारभाटे को अधिकाधिक विस्तीर्ण करते हैं । जिसके मध्य में हमेशा स्नेह स्वरुष इन्धन से कामरुष वडवानल प्रज्वलित है और जो भयानक रोग-शोकादि मस्स्य और कछुओं से भरा दुर्बुद्धि, ईा और द्रोह- स्वरुप बिजली, तूफान और गर्जन से जहां समुद्री व्यापारी तूफान रुपी संकट में पड़ते हैं । ऐसे भीषण ससार- समुद्र से भयभीत ज्ञानी पुरुष उससे पार उतरने के प्रयत्नों की इच्छा रखते हैं । विवेचन : संसार ! जिस संसार के मोह में असंख्य जीव अंधे बन गये हैं, जानते हो वह संसार कैसा है ? मोक्षगति-प्राप्त परम-पात्मायें संसार को किस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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