________________
३१२
के लिए समभाव की ज्योत अखंडित रखनी चाहिये ! उसे छिन्न-भिन्न नहीं होने देने के लिए कर्म विपाक का चिंतन अनुचिंतन सदा-सर्वदा शुरु रहना चाहिए। न जाने पूज्य उपाध्याय जी महाराज ने कैसी अलौकिक व्यवस्था का मार्गदर्शन किया है !
संसार में रही विषमताओं का समाधान 'कर्म विपाक' के विज्ञान द्वारा न किया जाएँ तो ? तब क्या होगा ?
संसार के जीवों के प्रति राग और द्वेष की भावना तीव्र बनेगी । राग-द्वेष के कारण अनेकविध अनिष्ट पैदा होंगे । हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, परिग्रह, क्रोध - मान, माया, लोभादि असंख्य दोषों का प्रादुर्भाव होगा । फलतः जीवों का जीवन जीवों के हाथ ही असुरक्षित बन जाते देर नहीं लगेगो । परस्पर शंका-कुशंका, घृणा, द्वेष और वैर - भावना में, क्रमशः बढोतरी होगी । परिणाम स्वरुप विषमता बढेगी । ऐसी स्थिति में मोक्ष मार्ग की आराधना संभव नहीं ।
ज्ञानसार
आज भी हम देखते हैं कि जो प्रस्तुत कर्म - विज्ञान से अनभिज्ञ हैं, उन की क्या हालत है ? वे अपनी जिंदगी बदतर स्थिति में गुजार रहे हैं । वहाँ अशांति, चिंता और दुःख का साम्राज्य छाया हुआ है । न जाने आत्मा-परमात्मा और धर्म ध्यान से वे कितने दूर - सुदूर निकल गये हैं ।
तब आप तो मुनिराज हैं ! मोक्ष मार्ग के पथिक बन आपको कर्म - बंधन तोडने हैं और शुद्ध-बुद्ध अवस्था प्राप्त करनी है । ग्रतः प्राप को 'कर्म विज्ञान' का मनन कर उसे पचाना चाहिए। उसके आधार पर समभाव के धनी बनना चाहिए । फलतः आप ज्ञानानन्द - पराग के भोगी भ्रमर बन जायेंगे ! ध्यान रहे, जहाँ भी समभाव खंडित होता दृष्टि गोचर हो, शीघ्रातिशीघ्र " कर्म विपाक" का आलम्बन ग्रहण कर लेना ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org