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________________ भावपूबा ४४६ की मधुरता का लाभ तो अवश्य उठा सकते हैं । निःसन्देह यहां प्रात्मा की उच्चतम अवस्था का प्रतिपादन है । पूजा के माध्यम से उक्त अवस्था का यहाँ दर्शन कराया गया है । ज्ञानयोगी किस तरह पूजन करते हैं, इसकी झांकी बतायी गयी है । ठीक वैसे ही इस प्रकार का पूजन केवल ज्ञानयोगी ही कर सकते हैं, ना कि सामान्य योगी । विशेषत: प्रस्तुत पूजन-विधि ज्ञानपरायण मुनिश्रेष्ठों के लिए ही प्रदर्शित की गयी है । संयमशील और ज्ञानी महात्मा ही ऐसा अपूर्व पूजन कर अनहद और अद्भुत आनन्द का अनुभव करते स्फरन्मंगलदीपं च, स्थापयानुभवं पुरः । योगनृत्यपरस्तौर्यत्रिक-संयमवान् भव ॥६॥२३०॥ अर्थ :- अनुभव रुप स्फुरायमान मंगलदीप को समक्ष (प्रात्मा के सामने) प्रस्थापित कर। संयमयोग रुषी नृत्य-पूजा में तत्पर बन, गीत, नत्य और वाद्य-इन तीन के समुह जैसा संयमशील बन । (किसी एक विषय में धारणा, ध्यान और समाधि को सयम कहा जाता है) निवेचन:- अब दीपकपूजा करें। प्रातमदेव के समक्ष दीपक प्रस्थापित करना है। इस दीपक का नाम है-अनुभव । पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'अनुभव' की अनोखी परिभाषा दी है। 'सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां, केवल तयोः पृथक् । बुधरनुभवो दृष्ट: केवलार्कारुणोदयः ॥' जिस तरह दिन और रात्रि से सन्ध्या अलग है, ठीक उसी तरह 'अनुभव' केवलज्ञान और श्रुतज्ञान से सर्वथा भिन्न, सूर्य के अरुणोदय समान है। ज्ञानी भगवंतों ने 'अनुभव' की परिभाषा/व्याख्या इस तरह की है। केवलज्ञान के अत्यन्त समीप की अवस्था । इस 'अनुभव' को लेकर श्री आतमदेव की दीपपूजा करनी है। ___इस दीपक के दिव्य प्रकाश में ही प्रातमदेव का सत्य स्वरुप देखा जा सकता है। अतीन्द्रिय परमब्रह्म का दर्शन विशुद्ध अनुभव से ही संभव है। शास्त्रों के माध्यम से हमें सिर्फ 'अनुभव' की कल्पना ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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