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________________ ४४७ ज्ञानसार करनी रही ! केवलज्ञान के अरुणोदय की मन को मुग्ध करने वाली लालिमा की कल्पना कैसी तो मोहक और चित्ताकर्षक है ! और अब पूजन करता है - गीत, नृत्य एवं वाद्य से । आतमदेव के समक्ष अनूठी धून छेड़ दो । गीत की ऐसी लहरियाँ विस्फारित हो जाएँ कि जिसमें मन की समस्त वृत्तियाँ केन्द्रीभूत हो जाएँ । गाते-गाते नृत्यारंभ कर दो । हाथ में साज लेकर नृत्य करना और करना भावाभिनय । वाद्य वादन के मीठे सूर तुम्हारे कंठ स्वरों को बहका दें और नृत्यकला सोलह कलाओं से विकसित हो उठे । धारणा, ध्यान और समाधि, इन तीनों की एकता- स्वरूप संयम, यह आतमदेव का सर्वश्रेष्ठ पूजन है । एक ही विषय में इन तीनों की एकता होनी चाहिये । हमें अपनी आत्मा में धारणा, ध्यान और समाधि की पूर्व एकता साधनी है । संयम का यह उच्चतम, उत्तुंग शिखर है और योग की सर्वोत्कृष्ट भूमिका | इस तरह प्रात्मा के पूजन का यह अनोखा रहस्य प्रकट कर दिया गया है । जिस तरह मंदिर के रंग- मंडप में कोई स्वर सम्राट भूम-झूम कर अद्वितीय सूरावलियाँ बहा रहा हो, कोई नृत्यांगना अपनी अभिनय कला का प्रदर्शन कर रही हो और इस गीत नृत्य को साथ देने वाला कोई महान वाद्यवादक अद्भुत वीणावादन कर रहा हो; ऐसे प्रसंग पर जिस तरह सर्वत्र तन्मयता - तादात्म्य का वातावरण निर्मित होता है, ठीक उसी तरह धारणा, ध्यान और समाधि के ऐक्य में संयम का अपूर्व वातावरण जम जाता है । ऐसे समय आतमदेव का मन्दिर कैसा पवित्र, प्रसन्न और प्रफुल्लित बन जाता होगा, इस की स्थिर चित्त से कल्पना करें ।.... इस कल्पनालोक में खो जाने पर ही उसकी वास्तविक झांकी संभव है । स्वरुप में तन्मय होने का यह उपदेश है और स्वभाव अवस्था में गमन करने की प्रेरणा है । आत्ममस्ती और ब्रह्म- रमणता की ये अनोखी बातें हैं । यहाँ पर पूज्य उपाध्यायजी महाराज पूजन के स्थूल साधनों के आधार से मोक्षार्थी का सर्वोत्तम मार्गदर्शन कर रहे हैं । उल्लसम्मनसः सत्यघण्टां वादयतस्तव । भावपूजारतस्येत्थं, करक्रोडे महोदयः ||७|| २३१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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