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ज्ञानसार
किया गया है ! लेकिन इस तरह का पूजन क्षपकश्रेरिण पर चढ़ने वाला ही कर सकता है ! जब क्षपकश्रेणी में जीव दूसरा अपूर्वकरण करता है तब तात्त्विक दृष्टि से 'धर्मसन्यास' नामक सामर्थ्य योग होता है, अर्थात् ऐसे प्रसंग पर योगीजन क्षमा, आर्जव और मार्दवादि क्षायोपशमिक धर्म से पूर्णतया निवृत्त होते हैं ।
लेकिन जो क्षपकश्रेरिण पर आरूढ नहीं हो सकते, ऐसे जीवों के लिए भी 'धर्मसन्यास' बताया गया है और वह है- औदयिक धर्मों का संन्यास । संन्यास का अर्थ है-त्याग । अज्ञान, असंयम, कषाय और वासनाओं के त्याग को 'धर्म-सन्यास' कहा गया है । ऐसा त्याग करना यानी लवण उतारना । ऐसा धर्म-सन्यास पाँचवें-छठे गुणस्थान पर रहे श्रावक-श्रमणों को होता है, जबकि पहले प्रकार का धर्म-संन्यास केवल क्षपकश्रेणि में ही होता है ।
धर्म-सन्यास की अग्नि में क्षायोपशमिक धर्मों को स्वाहा कर नोन (लवण) उतारने के उपरान्त ही कवि का यह कथन सिद्ध होता है :
'जिम जिम तड़ तड़ लूण ज फूटे,
तिम तिम अशुभ कर्म बन्ध ज टे' लूण उतारने की स्थूल क्रिया, तात्त्विक मार्ग का एक मात्र प्रतीक
अब आरती कीजिए । सामर्थ्ययोग की आरती उतारिए । सामर्थ्ययोग क्षपकश्रेरिण में होता है। उसके दो भेद हैं-धर्म-सन्यास और योग-संन्यास । धर्म-संन्यास में लवण उतारने की क्रिया का समन्वय किया, जबकि प्रारती में 'योगसंन्यास' का समन्वय कीजिए।
योग-संन्यास का अर्थ है-योग का त्याग । यानी कायादि के कार्यों का त्याग । कायोत्सर्गादि क्रियाओं का भी त्याग । अलबत्ता, ऐसा उच्च कोटि का त्याग केवलज्ञानी भगवंत ही करते हैं....। हम तो सिर्फ उनके कल्पनालोक में विचरण कर क्षणार्ध के लिये केवलज्ञानियों की अनोखी दुनिया के दर्शन का आस्वाद करते हैं ।
आतमदेव की आरती करने के लिए भले ही हम 'सामर्थ्ययोगी' न बन सकें लेकिन 'इच्छायोगी' बन धर्म-संन्यास और योग-संन्यास
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