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ज्ञानसार
नैगम, संग्रह और व्यवहार, ये तीनों नय यद्यपि ज्ञानादि तीनों को मोक्ष का कारण मानते हैं, परन्तु तीनों के समुदाय को नहीं, ज्ञानादि को भिन्न-भिन्न रूप से मोक्ष के कारण रूप स्वीकार करते हैं । ज्ञानादि तीनों से ही मोक्ष होता है, ऐसा नियम ये नय नहीं मानते । अगर ऐसा माने तो वे नय, नय ही न रहें । नयत्व का व्याघात हो जाय । यह ज्ञाननय - क्रियानय का संक्षिप्त स्वरूप है ।
१२. ज्ञपरिज्ञा - प्रत्याख्यानपरिज्ञा
सम्यग् आचार की पूर्व भूमिका में सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता निश्चित रूप से मानी गई है । सम्यग्ज्ञान के बिना आचार में पवित्रता, विशुद्धि और मार्गानुसारिता नहीं आ सकती ।
'पापों को जानना और परिहरना, मनुष्य का साधक मनुष्य का यह आदर्श, साधक को पापमुक्त बनाता है । इस आदर्श को श्री 'आचारांग - सूत्र' में 'ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा' की परिभाषा में प्रस्तुत किया गया है । आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में ही चार प्रकार की 'परिज्ञा' बताई गई है । ( १ ) नाम परिज्ञा ( २ ) स्थापना परिज्ञा ( ३ ) ' द्रव्य परिज्ञा ( ४ ) भाव परिज्ञा । उसमें द्रव्य तथा भाव परिज्ञा के दो दो भेद बताए गये हैं: ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा ।
- पृथ्वीकायादि षट्काय के आरंभ-समारंभ को कर्मबंध के हेतुरूप में जानना यह ज्ञपरिज्ञा और उन आरम्भ-समारंभ का त्याग करना, उसका नाम प्रत्याख्यानपरिज्ञा है । मुनि इन दोनों परिज्ञाओं से सर्व पाप - आचारों को जाने और उनका त्याग करे ।
1 दव्वं जाणण पच्चक्खाणे दविए उवगरणे ।
भावपरिण्णा जाणण पच्चक्खाण च भावेण ||३७||
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— आचारांग० प्र० अध्य० नियुक्तिगाथा
पृथिवीविषयाः कर्मसमारम्भाः खननकृष्याद्यात्मकाः कर्मबन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता भवन्ति ज्ञपरिज्ञया तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृता भवन्ति ।
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—-आचारांग, प्र० अध्य० द्वि० उद्दे० सूत्र १८
शीलाङ्काचार्यटीकायाम्
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