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________________ नयविचार निश्चयनय-व्यवहारनय 'तात्त्विकार्थाभ्युपगमपरस्तु निश्चय ।' -जैन तर्कभाषा निश्चय नय तात्त्विक अर्थ का स्वीकार करता है। 'भ्रमर' को यह नय पंचवर्ण का मानता है । पाँच वर्ण के पुद्गलों से उसका शरीर बना हुआ होने से भ्रमर तात्विक दृष्टि से पांच वर्ण वाला है । अथवा तो निश्चय नय की परिभाषा इस प्रकार से भी की जाती है : 'सर्वनयमतार्थग्राही निश्चयः' सर्व नयों के अभिमत अर्थ को ग्रहण करने वाला निश्चय नय है । प्रश्न:-सर्वनय-अभिमत अर्थ को ग्रहण करते हुए वह प्रमाण कहलायेगा तो फिर नयत्व का व्याघात नहीं होगा ? उत्तर:-निश्चय नय सर्वनय-अभिमत अर्थ को ग्रहण करता है, फिर भी, उन-उन नयों के अभिमत स्व-अर्थ की प्रधानता को स्वीकार करता है, इसलिये उसका अन्तर्भाव 'प्रमाण' में नहीं होता । ____ 'लोकप्रसिद्धार्थानुवादपरो व्यवहार नयः' ___ लोगों में प्रसिद्ध अर्थ का अनुसरण करने वाला व्यवहार नय ही है। जिस प्रकार लोगों में 'भ्रमर' काला कहा जाता है, तो व्यवहार नय भी भ्रमर को काला मानता है । अथवा 'एकनयमतार्थ ग्राही व्यवहारः' किसी एक नय के अभिप्राय का अनुसरण करने वाला व्यवहार नय कहा जाता है। ज्ञाननय-क्रियानय 'ज्ञानमात्रप्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञान नयाः ।' मात्र ज्ञान की प्रधानता मानने वाला ज्ञाननय कहलाता है । ___ 'क्रियामात्र-प्राधान्याभ्युपगमपराश्च क्रियानयाः ।' मात्र क्रिया की प्रधानता को स्वीकार करने वाला क्रियानय कहलाता है। ऋजुसत्रादि चार नय चारित्ररूप क्रिया की ही प्रधानता मानते हैं, क्योंकि क्रिया ही मोक्ष के प्रति अव्यवहित कारण है । 'शैलेशी' क्रिया के बाद तुरन्त ही आत्मा सिद्धिगति को प्राप्त करती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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