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मेरा मनोमंथन
साहित्य दो प्रकार का होता है । एक प्रकार होता है मनुष्य की वासनाओं को उत्तेजित करनेवाले साहित्य का और दूसरा प्रकार होता है, मनुष्य को उद्दीप्त वासनाओं को उपशान्त करनेवाले साहित्य का ।
भीतर की दुष्ट....पापी वृत्तिओं को उत्तेजित करनेवाला साहित्य पढ़ते समय तो मनुष्य को बहुत मीठा....मधुर लगता है, परंतु पढ़ने के पश्चात् मनुष्य अशान्ति और उद्वेग से भर जाता है। उत्तेजित वासनाओं की पूर्ति करने हेतु वह दुनिया को अंधकारपूर्ण गलियों में भटक जाता है । जब उसकी वासनायें तृप्त नहीं होती है, उसकी इच्छायें संतुष्ट नहीं होती हैं तब उसका दुःख निःसीम हो जाता है, असह्य बन जाता है । कभी वासना संतुष्ट भी हो जाती है, फिर भी अतृप्ति की आग सुलगती ही रहती है ।
वर्तमान में मनुष्य बहुत पढ़ता है, बहुत देखता है और बहुत सुनता है । परंतु चितन-मनन का मार्ग भूल गया है । ऐसा कुत्सित दर्शन, श्रवण और अध्ययन हो रहा है कि जिसके फलस्वरुप मन चंचल, अस्थिर और उत्तेजित बन गया है । मनुष्य दिशाशून्य बन, अन्यमनस्क हो भटक रहा है। कैसी करूण स्थिति बन गई है मनुष्य की ?
ऐसे मनुष्यों का उद्धार करने का उच्चतम भाव करुणावंत ज्ञानी पुरुषों के हृदय में जगता है और करुणामय हृदय में से ऐसा उत्तम साहित्य आविर्भूत होता है कि जो साहित्य मनुष्य की उन्मत्त वासनाओं को शान्त कर सकता है, और सही जीवनपथ का दर्शन कराता है ।
'ज्ञानसार' ऐसी ही एक आध्यात्मिक साहित्य की असाधारण रचना है । महोपाध्याय श्री यशोविजयजी की यह श्रेष्ठ कृति है । 'ज्ञानसार' का एक एक श्लोक, मनुष्य के जलते हुए हृदय को शान्त करनेवाला शीतल पानी है, गोशोर्ष चंदन है । यह मात्र प्रशंसा करने की दृष्टि से नहीं लिख रहा हूं, परंतु मैंने स्वयं मेरे जीवन में अनुभव किया है । मैंने मेरे ही अशान्त हृदय को इस 'ज्ञानसार' के अध्ययनमनन और चितन से शान्त किया है, शीतल बनाया है ।
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