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संसार के असंख्य पापों से मुक्त जीवन जीनेवाले मोक्षमार्ग के आराधक भी जब व्यवहारमूढ़ बनते हैं, मात्र बाह्य धर्मक्रियाओं में ही इति-कर्तव्यता मानते हैं तब उनका मन आर्तध्यान का आर्तनाद करता रहता है । 'इतनी सारी धर्मक्रियायें करने पर भी मन में शान्ति, समता और समाधि नहीं आती है, कभी आती है तो टिकती नहीं है, यह शिकायत गृहस्थों में और साधुपुरुषों में भी, व्यापक बनती जा रही है । पवित्र धर्मक्रियायें करने पर भी अशान्ति दूर नहीं होती है और समता-समाधि मिलती नहीं है। इस रोग का मूल कारण खोजना चाहिये और उपचार करने चाहिये । यह रोग केन्सर जैसा भयानक रोग है ।
रोग का निदान और उपचार, दोनों इस 'ज्ञानसार' ग्रंथ में से मिल जाते हैं । तदुपरांत, निश्चयनय' एवं 'व्यवहारनय' की समतुला भो जो इस ग्रंथ में है, शायद ही दूसरे ग्रंथों में हो ! दोनों नयों से अध्यात्म का कितना विशद एवं हृदयग्राही प्रतिपादन किया गया है ! ऐसी मार्मिक बातें कही गई हैं कि यदि शान्त मन से अध्ययन किया जाय तो न रहे क्लेश, न रहे संताप और न रहे उद्वेग । ग्रंथकार महात्मा ने अपना शास्त्रज्ञान और अनुभवज्ञान भर दिया है इस ग्रंथ में ।
आत्मकल्याण साधने की तमन्ना से मार्ग खोजते हुए मुमुक्षु आत्मा को जव 'आचारांग सूत्र' अथवा 'सुयगडांग सूत्र' का शुद्ध मोक्षमार्ग अति कठिन और आदर्शमात्र प्रतीत होता है और 'बहत्कल्पसूत्र' तथा 'व्यवहारसूत्र' वगैरह 'छेद' ग्रंथों का व्यवहारमार्ग, वर्तमान में अटापद तीर्थ की भांति अदृश्य हुआ लगता है तब वह तीव्र मानसिक तनाव महसूस करता है । उस तनाव से मुमुक्षु को यह 'ज्ञानसार' ग्रंथ मुक्ति दिलाता है । मैंने तनाव अनुभव किया है और मुक्ति का आनन्द भी पाया है । यह उपकार है इस 'ज्ञानसार' ग्रन्थ का । वे परम उपकारी गुरुदेव हैं उपाध्याय श्री यशोविजय जी ।
'ज्ञानसार' के उपर मैंने यह विवेचन, मात्र लिखने की दृष्टि से नहीं लिखा है....परंतु सहजता से लिखा गया है ! लिखते लिखते मैंने जो आन्तरिक आनन्द अनुभव किया है, वह शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता हूं । ऐसा अपूर्व आनन्द दूसरी आत्मायें भी अनुभव करें, इस भावना से यह विवेचन प्रकाशित किया गया है ।
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