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________________ [ ज्ञानसार सातों कर्मों की 'पृथक पल्योपम' के संरव्याता भाग न्यून एक क्रोडाकोड़ सागरोपम प्रमाण स्थिति कर देता है । __जब कर्मों की इस प्रकार से मर्यादित कालस्थिति हो जाती है तब जीव के समक्ष एक अभिन्न ग्रंथि आती है । तीव्र राग-द्वेष के परिणामस्वरुप यह ग्रंथि होती है । उस ग्रंथि का सर्जन अनादि कर्मपरिणाम द्वारा हुआ होता है ।। __ अभव्यजीव यथाप्रवृत्तिकरण से ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों की दीर्घस्थिति का क्षय करके अनंत बार इस 'ग्रंथि' के द्वार पर आते हैं, परन्तु ग्रंथि की भयंकरता देखकर ग्रंथि को भेदने की कल्पना भी नहीं कर सकते.."उसे भेदने का पुरुषार्थ करना तो दूर रहा ! वहीं से वापस लौटता है-पुनः वह संक्लेश में फंस जाता है ! संक्लेश द्वारा पुनः कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बांधती है । भवभ्रमण में चला जाता है । भव्य जीव भी अनन्तबार इस प्रकार से ग्रंथि प्रदेश के द्वार पर आकर ही घबड़ाते हुए वापिस लौट जाते हैं । परन्तु जब इस 'भव्य' महात्मा को 'अपूर्वकरण' की परमसिद्धि प्राप्त हो जाती है, कि जिस अपूर्वकरण की परमविशुद्धि को श्री 'प्रवचनसारोद्धार' ग्रंथ के टीकाकार ने 'निसिताकुण्ठकुठारधारा' की उपमा दी है । वह तीक्ष्ण कुल्हाडी की धारा के समान परम विशुद्धि द्वारा समुल्लसित दुर्निवार वीर्यवाला महात्मा ग्रंथि को भेद कर परमनिवृत्ति के सुख का रसास्वाद कर लेता है। अब यह महात्मा किस प्रकार से राग-द्वेष की निबिड ग्रंथि को भेद डालता है, उसे एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं । कुछ पथिक यात्रा के हेतु निकले । एक गहन वन मेंसे गुजरते हुए उन्होंने दूर से डाकुओं को देखा । डाकुओं के रौद्र स्वरूप को देख कर कुछ पथिक तो वहीं से पीछे भाग गये। कुछ पथिकों को डाकुओं ने पकड़ लिया । जब कि शेष शूरवीर पथिकों ने डाकुओं को भूशरण कर आगे प्रयाण किया । वन को पार कर तीर्थस्थान पर जा पहँचे। २ आयुर्वर्जानि ज्ञानावरणादिकर्माणि सर्वाण्यपि पृथक्पल्योपमसंख्येयभागन्यूनैकसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानि करोति । -प्रवचनसारोद्धारे ३ 'सम्यक्त्वस्तव' प्रकरणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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