________________
अध्यात्मादियोग ]
__मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बांधने वाले वे भागने वाले पथिकों जैसे हैं । जो डाकुओं द्वारा पकड़े गये थे वे ग्रंथि देश में रहे हुए जीव हैं । जो डाकुओं को परास्त कर तीर्थस्थान पर पहुँचे वे ग्रंथि को भेद कर समकित को प्राप्त करने वाले हैं ।
__ 'सम्यक्त्वस्तव' प्रकरणकार इस प्रकार से ग्रंथिभेद की प्रक्रिया बताते हैं । अर्धपुद्गलपरावर्त काल जीव का संसारकाल बाकी है, जो जीव भव्य हैं, पर्याप्त-संजी-पंचेन्द्रिय है, वे जीव अपूर्वक रणरुपी मुद्गर के प्रहार से ग्रंथिभेद करके, अन्तमुहत में ही 'अनिवृत्तिकरण' करते हैं और वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं।
३. अध्यात्मादि योग जैनदर्शन का योगमार्ग कितना स्पष्ट, सचोट, तर्कसंगत तथा कार्यसाधक है, उसकी सूक्ष्म दृष्टि से तथा गंभीर हृदय से शोध करने की आवश्यकता है । यहाँ क्रम से अध्यात्मयोग, भावनायोग, ध्यानयोग, समतायोग और वृत्तिसंक्षययोग का विवेचन किया जाता है। १. अध्यात्मयोग
'योग' शब्द की परिभाषा 'माक्षेण योजनाद् योगः ।' इस प्रकार से करने में आई है । अर्थात् जिसके द्वारा जीवात्मा मोक्षदशा प्राप्त करे, वह योग है। इस योग की, साधना की दृष्टि से उत्तरोत्तर विकास की पांच भूमिकाएं अनंतज्ञानी परमपुरुषों ने देखी हैं । उनमें से प्रथम भूमिका अध्यात्मयोग की है ।
उपाध्यायजी ने 'अध्यात्मसार' ग्रन्थरत्न में 'अध्यात्म' की व्याख्या इस प्रकार की है:
1'गतमोहाधिकाराणामात्मानमधिकृत्य या । प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तदध्यात्म जगुजिनाः ।।
जिन आत्माओं के ऊपर से माह का अधिकार... वर्चस्व उठ गया है, वे आत्माएं स्व-पर की आत्मा को अनुलक्षित करके जो विशुद्ध क्रिया ४ मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० क्रोडाकोड़ी सागरोपम है । १ अध्यात्मसारे-अध्यात्मस्वरुपाधिकारे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org