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ध्यान
प्रश्न : इसे भला, 'आरोप' की संज्ञा क्यों देते हो?
उत्तरः इस का यही कारण है कि यह तात्त्विक अभेद नहीं है। परमात्मा का यात्म-द्रव्य और अंतरात्मा का आत्म-द्रव्य, दोनों भिन्न हैं। इन दोनों के स्वतंत्र अस्तित्व का विलीनीकरण असंभव है । दो भिन्न द्रव्य एक नहीं बन सकते । अतः भावदृष्टि से जब दोनों आत्म-द्रव्यों का संगम होता है, समरस होकर परस्पर विलीन हो जाते हैं, तब अभेद का आरोप किया जाता है ।
हम अंतरात्मा बनें। समस्त इच्छाओं का क्षय करें। परमात्मा का ध्यान धरें! तब मणि सदृश हमारी विशुद्ध आत्मा में निःसंशय परमात्मा का प्रतिबिंब उभरेगा....! न जाने वह क्षण कैसी धन्य होगी। क्षणार्थ के लिए पात्मा अनुभव करती है, जैसे 'मैं परमात्मा हूँ।' 'अहं ब्रह्मास्मि!' यह बात इस भूमिका पर सही होती है। - आपत्तिश्च ततः पुण्यतीर्थ कृत्कर्मबन्धतः ।
तद्भागाभिमुखत्वेन संपत्तिश्च क्रमाद् भगेत ॥४॥२३६।। अर्थ : उक्त समापति से पुण्य-कृत्तिस्वरुप 'तीथं कर-नामकर्म' के उपार्जन
रुप फल की प्राप्ति होती है। और तीर्थ करत्व के अभिमुख त्व से
क्रमश: आत्मिक संपत्तिरुप फल की निष्पत्ति होती है। निवेचन : समापत्ति ! आपत्ति ! संपत्ति !
समापत्ति से आपत्ति और आपत्ति से संपत्ति ।
'आपत्ति' का मतलब आफत नहीं, कोई दुःख या कष्ट नहीं! किसी प्रकार की वेदना अथवा व्याधि नहीं, बल्कि कभी भी नहीं सुना हो ऐसा अर्थ है ! यहाँ 'आपत्ति' शब्द का प्रयोग पारिभाषिक अर्थ में किया गया है !
'तीर्थ कर-नामकर्म' उपार्जन करना यह आपत्ति है ! हाँ, समापत्ति से तीर्थ कर नामकर्म का बंधन होता है और वह 'आपत्ति' है। जो आत्मा यह नामकर्म का उपार्जन करती है, वही तीर्थ कर बनती है और धर्मतीर्थ की स्थापना कर विश्व में धर्म-प्रकाश फैलाती है।
कर्म आठ प्रकार के होते हैं, जिनमें से एक 'नामकर्म' है। यह नामकर्म १०३ प्रकार का है, जिस में से एक प्रकार 'तीर्थ कर नामकर्म'
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