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________________ मध्यस्थता २२६ अरूचि नहीं है। लेकिन यथार्थ आप्तत्व की परीक्षा से हम आपश्री का आशय ग्रहण करते हैं ।" जिस तरह युक्ति के अनुसरण में मध्यस्थता रही है, ठीक उसी तरह सिद्धान्तों के दृष्टा महापुरुष की प्राप्तता का भी मध्यस्थ दृष्टि विचार करती है। जो वक्ता आप्तपुरुष-वीतराग है, उसका वचन/ उपदेश हमेशा स्वीकार्य होता है, सर्वमान्य होता है। ठीक वैसे ही जो वक्ता वीतराग नहीं होता, उसका कथन और वचन प्रायः राग-द्वषयुक्त होता है, अतः त्याज्य है । इस तरह मध्यस्थ दृष्टि को आलीशान इमारत प्रात्मा के त्याग और स्वीकार नाम के दो स्तम्भों पर टिकी हुई है । 'मध्यस्थया दृशा सर्वेष्वपुनबंधकादिषु । चारिसंजीविनीचारन्यायादाशास्महे हितम् ॥७॥१२८॥ अर्थ : अपनबंधकादि समस्त में मध्यस्थ दृष्टि से संजीवनी का चारा चराने के दृष्टांत द्वारा कल्याण की कामना करते हैं । विवेचन : स्वस्तिमतो नाम का नगर था । वहां दो ब्राह्मण-कन्याएँ वास करती थी। दोनों में प्रगाढ मित्रता और अनन्य स्नेह-भाव था । कालान्तर से दोनों विवाहित होकर अलग-अलग स्थान पर चली गयी। किसी समय दोनों का आगमन स्वस्तिमती नगर में स्वगृह में हुआ । प्रदीर्घ समय के पश्चात् भेंट होने पर दोनों प्रानन्द से पूलकित हो उठी। लगी आपस में अपनी अपनी सुनाने । बतियाते हुए एक सहेली ने सहज ही कहा : "सचमुच मैं बहुत दुःखी हूँ, सखी, लाख प्रयत्न के बावजूद भी मेरा पति मेरी एक बात भी नहीं सुनता। हमेशा अपनी मनमानी करता है।' ___"सखी, तुम निश्चिंत रहो। मैं तुम्हें ऐसी जडी-बुट्टी दूंगी कि उसके सेवनमात्र से वह तेरा हो जाएगा।' दसरी ने कुछ सोच विचार कर कहा और उसे जडी-बुट्टी देकर वह चली गयी । ___ ससुराल जाकर उसने वह जडी-बुट्टी पीसकर अपने पति को खिला दी। जडी-बूटी खाते हो उसका पति बैल रूप में परिवर्तित हो गया ! पति को बैल के रुप में देख, पत्नी को अत्यंत दु:ख हुआ। वह मन मार कर रह गयी । अब वह हमेशा उसे जंगल में चराने जाती-उसकी सेवा करती जिंदगी का बोझ ढोने लगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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