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ज्ञानसार
है । जिस तरह की स्थिति विषधर साप को घर में आते देखकर होती है ।
इस तरह स्वाभाविक आनन्द में तल्लीन आत्मा, भला क्यों कर खुद ही माया के बाजार में पौद्गलिक विषयों की प्राप्ति हेतु जाएगी? क्यों विषयसुख के अभाव में दीन बनाभटकती फिरेगी? क्यों शोक-विह्वल होगी ? और वैषयिक सुख मिलने पर संतुष्ट भी क्यों होगी ? हमें समझ लेना चाहिये कि यदि हम पौदगलिक सुख की टोह में घूम रहे हैं, उसे पाने के भ्रम में संसार में भटक रहे हैं और उसके न मिलने पर मायूस बन जाते हैं, हताश हो जाते हैं, प्राक्रन्दन कर उठते हैं, जब कि पाने पर आनंदविभोर बन नाच उठते हैं, तो निःसन्देह हम अपनी स्वाभाविक ज्ञानानन्द-वृत्ति के साथ तादात्म्य साधने में असमर्थ रहे हैं । और परब्रह्म का आनंद अनुभव नहीं कर पाये हैं । अवश्य हमारे में कोई कमी, त्रुटि रह गयी है ।
स्वभावसुखमग्नस्य, जगत्तत्वावलोकिनः ।
कर्तृत्वं नान्यभावानां, साक्षित्वमवशिष्यते ॥३॥११॥ अर्थ : स्वाभाविक आनंद में तल्लीन हुए और स्याद्वाद के माध्यम से जगत
तत्त्व का परीक्षण कर अवलोकन करने वाले जीवात्मा को अन्य प्रवृत्तियों [भावों का कर्तृत्व नहीं होता है, परन्तु साक्षीभाव शेष
रहता है। विवेचन : किसी भले सज्जन मनुष्य को दुष्टों की टोली ने अपने जाल में फंसा दिया । उसे पूरी तरह से अपने खाके में ढाल दिया। उसमें
और उसकी प्रवृत्तियों में आमूल परिवर्तन कर दिया । अपने मनपसंद सभी कुकर्म उससे करा दिये । वर्षों बोत गये इस घटना को । एक बार जाने-अनजाने वह एक परमोपकारी महापुरुष के हाथ लग गया। उन्होंने उसे दुष्ट लोगों का रहस्य बताया। उनके चंगुल से उसे आज़ाद करा दिया और अच्छे सज्जन लोगों के हाथ सौंप दिया । तब वह पीछे मुडकर अपने भूतकाल को देखता है । वेदना और पश्चात्ताप से भर जाता है । वह मन ही मन सोचता है :" सच में तो इन दुष्कार्यों का मैं कर्ता नहीं हूँ ! मैं भला सज्जन होकर ऐसे अघोरी कृत्य क्या कर सकता हूँ ? यह सर्वथा असंभव है, बल्कि ये दुष्कार्य तो उन्हीं
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