________________
१८५
हमें आत्मा के अविनाशी स्वरुप का दर्शन केवल एकाध पल, घंटा, माह अथवा वर्ष के लिए नहीं करना है, अपितु जब-जब स्व-आत्मा अथवा अन्य आत्मा की ओर दृष्टिपात करें तब-तब 'आत्मा अविनाशी है, ' का संवेदन होना चाहिए । अविनाशी आत्मा का दर्शन जब सुखद संवेदन पैदा करेगा तब नश्वर शरीर और भौतिक संपदा के दर्शन/ अनुभव के प्रति निरसता एवं अनाकर्षण - वृत्ति का जन्म होगा । अविनाशी आत्मा के साथ स्नेह-सम्बन्ध जुड़ते ही 'परपुद्गल-संयोग अनित्य है । और जो अनित्य है उनके समागम से मेरा क्या वास्ता ?' इस दिव्यदृष्टि का आविर्भाव होता हैं । पर-संयोग की अनित्यता का दर्शन मन पर ऐसा प्रभाव डालता है कि पर-संयोग करने-कराने और उसका सुखद अनुभव करने में या उसके विरह-वियोग में... न आनंद... न प्रमोद और ना ही किसी प्रकार का विषाद !
विद्या
परसंयोग की अवस्था में मोह को आत्मप्रदेश में प्रवेश करने का मार्ग मिल जाता है । इसे मत भूलो कि जहां पर -संयोग से सुख सुविधा पाने की कल्पना की नहीं कि मोह - महाराजा का दबे पांव बिना किसी आहट के, आत्म-भूमि में प्रवेश हुआ समझो | अतः पर - संयोग में सुख की कल्पना का उच्छेदन करने हेतु 'पर-संयोग अनित्य है, ' ऐसी ज्ञानदृष्टि अपलक खुली रखने का आदेश दिया गया हैं ।
आत्मा ने स्वयं सुख की कल्पना नहीं की है । अनादि काल से उसने स्वयं में सुख का दर्शन नहीं किया है ! अतः आत्मा को स्वयं में सुख का दर्शन हो, इसलिए 'मैं नित्य, अविनाशी, अविनश्वर हू", ऐसी तत्वदृष्टि दी गयी है ! जब तक ये दोनों दृष्टियां खुल नहीं जाती तब तक मोह आत्म-भूमि में प्रवेश पाने में सफल बन जाता है और भयंकर विनाश करता हैं । अलबत्ता, बर्बादी के साथ वह मोह ग्रात्मभूमि के मालिक को कुछ सुख-सुविधाएं अवश्य प्रदान करता है | ताकि सुख-सुविधाओं का चाहक लालची मालिक उसके खिलाफ बगावत न कर दे । जेहाद का नारा बुलन्द न कर दे ! जिस तरह अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त प्रांशिक मान-सन्मान और सर्वोच्च पदों के इनाम - इकराम के लालची कुछ भारतीय लोग भारत भूमि पर उनके राज्य शासन की आखिरी दम तक देशद्रोही हिमायत करते रहे ! ठीक उसी तरह जब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org