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[ ज्ञानसार मिट्टी के घड़े बनते हैं, सोने के पुद्गलों से सोने का घड़ा और चांदी के पुद्गलों से चांदी का घड़ा बनता है, उसी तरह इन पुदगलों से उनके अनुरुप शरीर बनता हैं । किसका कौन सा शरीर होता है : - तिर्यंच एवं मनुष्य का औदारिक शरीर होता है । - देव और नारकीय जीव का वैक्रिय शरीर होता है। (वक्रिय
लब्धिवाले तिर्यंच और मनुष्य को भी वैक्रिय शरीर होता है ।) - चौदह पूर्व के ज्ञानी मनुष्यों का आहारक शरीर होता है । - सर्व गति के सर्व जीवों का तैजस और कार्मण शरीर होता है । शरीरों का प्रयोजन :
- औदारिक शरीर से सुख-दुःख का अनुभव करना, चारित्र धर्म का पालन करना और निर्वाण प्राप्त करने का कार्य होता है ।।
. वैक्रिय शरीर वाले जीव अपना स्थूल एवं सूक्ष्म अनेक रुप कर सकते हैं । शरीर लम्बा या छोटा बना सकते हैं ।
- आहारक शरीर, चौदह पूर्वधर ज्ञानी पुरुष आवश्यकता होती है तब ही बनाते हैं । आहारक वर्गणा के पुद्गलों को ज्ञानबल से खींचकर यह शरीर बनाते हैं । वे इस शरीर के माध्यम से महाविदेह क्षेत्र में जाते हैं, वहां तीर्थंकर भगवंतों से अपने संशयों का निराकरण करते हैं, फिर शरीर का विसर्जन कर देते हैं ।
- तैजस शरीर खाये हुए आहार का परिपाक करता है । इस शरीर के माध्यम से शाप दे सकते हैं और आशीर्वाद भी दे सकते हैं।
- कार्मण शरीर द्वारा जीव एक भव से दूसरे भव में जाता है ।
इन पांचों शरीर से आत्मा की मुक्ति हो तब ही आत्मा सिद्ध हुआ, ऐसा कह सकते हैं। मुक्त होने का पुरुषार्थ औदारिक शरीर से होता है।
१८. बीस स्थानक तप 'कर्मणां तापनात् तपः' कर्मों को तपावे नष्ट करे उसे तप कहते हैं । ऐसे तरह तरह के तप शास्त्रों में बताये गये हैं। तीर्थंकर नामकम बंधाने वाला मुख्य तप बीस स्थानक की आराधना का तप है ।
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