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मानसार विमेधि यदि संसारान्मोक्षप्राप्ति च काक्षसि ।
तदेन्द्रियजयं कतु, स्फोरय स्फारपौरुषम् ॥१॥४६॥ अर्थ : यदि तू संसार से भयभीत है और मोक्ष-प्राप्ति चाहता है, तो अपनी
इन्द्रियों पर विजय पाने के लिये प्रखर पराक्रम का विकास कर । विवेचन : वाकई तुम संसार से भयक्रान्त हो, भयभीत हो? चार गति में होती जीव मात्र की घोर विडंबनाओं से त्रस्त हो, परेशान हो ? संसार के नानाविध मोहबंध करके अजीब घुटन महसूस हो रही है ? विषयविवशता और कषाय पराधीनता में तुम्हें अपना विनिपात नजर आ रहा है ? तुम ऐसे भयावने संसार से मुक्त होना चाहते हो? लेकिन यों मुक्त होने की नीरी भावना से क्या होगा ? तुम्हारे में उसकी वासना पैदा होनी चाहिये । तब काम बनेगा । पिजडे में बन्द सिंह की, उससे मुक्त होने की वासना तुमने देखी होगी और साथ ही उसकी तडप और प्रयत्नों की पराकाष्ठा भी ? ।
संसार के बंधनों से मुक्त होकर तुम मोक्ष जाना चाहते हो ? मोक्ष की अन्तहीन स्वतंत्रता चाहते हो ? उसकी अनंत गुण-समृद्धि के अधिकारी बनना चाहते हो ? उसका अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन पाने की तीव्र लालसा तुम में है ? तब तुम्हें एक पुरुषार्थ करना होगा.... महापुरुषार्थ का बिगुल बजाना होगा। भाग्य के भरोसे नहीं रह सकते । काल का बहाना करने से काम नहीं चलेगा। भावी के कल्पनालोक में खो जाने से नहीं चलेगा । बल्कि भगीरथ पुरुषार्थ और पराक्रम करने से ही संभव है । मन-वचन-काया से उसमें जुट जाना होगा । 'आराम हराम है'-सूक्ति को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। तभी संभव है।
___ तुम्हें अपनी पाँच इन्द्रियों को वशीभूत करना होगा । उन पर विजय पानी होगी । शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की लोलुप इन्द्रियों को नियंत्रित करना होगा । अमर्यादित इच्छाओं का निग्रह करना पडेगा। शब्द, रूप, रसादि की जो भी इच्छायें पैदा हों, उनकी पूर्ति न करो । उन्हें पूरी नहीं करने का मन ही मन दृढ़ संकल्प करो। और यदि यह सब करते हुए असंख्य दुःखों का सामना करना पड़े, तो हँसते हुए सहना सीखो । दु:ख-दर्द सहने की प्रात्म-शक्ति को विकसित करो।
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