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________________ ७. इन्द्रिय-जय यह एक ऐसा भयस्थान है, जहाँ जीवात्मा के लिये सदैव सावधान सचेत रहना आवश्यक है। जहां निर्मोही-भाव शिथिल बन जाता है और क्षणार्ध के लिये शम-सरोवर में से जीवात्मा बाहर निकल आता है, वहाँ इन्द्रियाँ बरबस अपने प्रिय विषय के प्रति आकर्षित हो जाती हैं । जीव पर मोह और अज्ञान अपना मायावी जाल बिछाने लगता है। सावधान ! जब तक तुम शरीरधारी हो, तब तक तुम्हारी इन्द्रियाँ विषयवासनादि विकारों के संपर्क में प्राती रहेंगी। ऐसी दुर्भर स्थिति में क्या तुम निर्मोही और ज्ञानी बने रह सकोगे ? शभ की संपत्ति को सम्हाल सकोगे ? उसकी रक्षा कर सकोगे ? ऊसके लिये तुम्हें इस अष्टक के एकएक श्लोक पर निरंतर चिन्तन-मनन करना चाहिये । इस से तुम्हें इन्द्रिय-विजय की अमोघ शक्ति और समुचित मार्गदर्शन मिलेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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