________________
त्याग
८६
है, सम्बन्ध प्रस्थापित करना है। यह सम्बन्ध/नाता कहीं बीच में ही टूट न जाए, विच्छेद न हो जाए, इसके लिये सदैव सदगुरु की उपासना करनी चाहिये ।
जब तक धनवान न बना जाए, तब तक उसकी सेवा नहीं छोड़नी चाहिये । जब तक उत्तम स्वास्थ्य का लाभ न हो, काया निरोगी न बने, तब तक डॉक्टर अथवा वैद्य का त्याग न किया जाए । ठीक उसी भाँति जब तक संशय-विपर्यास रहित ज्ञान-प्रकाश की प्राप्ति न हो, विशुद्ध मात्म-स्वरुप की झलक न दिखे, तब तक परम संयमी और ज्ञानी गुरु का परित्याग नहीं करना है । अर्थात्, जब तक गुरूदेव के गुरूत्व का विनियोग हममें न हो, तब तक निरन्तर विनीत बन उनकी श्रद्धाभाव से आराधना/उपासना में लगे रहना चाहिये ।
गुरुदेव की परम कृपा और शुमाशीर्वाद से ही हममें ज्ञान-गुरूता पैदा होने वाली है और ज्ञान-गुरुता का उदय तभी संभव है, जब उनसे पिनीत भाव से 'ग्रहरण शिक्षा' और 'प्रासेवन-शिक्षा ग्रहण की जाए और उसे सम्यग् भाव से प्रात्मपरिणत की जाये।
पांच महाव्रतों का सूक्ष्म रुप अवगत करना, क्षमा, आजव, मार्दवादि दस यतिधर्मों की व्यापकता समझना, पृथ्वीकायादि षटकाय-जीवों का स्वरूप आत्मसात् करना, यह सब ग्रहण-शिक्षा के अन्तर्गत आता है। सद्गुरु की परम कृपा से जीवात्मा को ग्रहण-शिक्षा की उपलब्धि होती है । और इसी ग्रहण-शिक्षा को स्व-जीवन में कार्यान्वित करना उसे प्रासेवन-शिक्षा कहा गया है । मासेवन-शिक्षा की प्राप्ति सद्गुरु के बिना असंभव है और इसकी प्राप्ति के बिना ज्ञान-गुरुता का उदय नहीं होता । ठीक उसी तरह बिना ज्ञान-गुरुता के केवलज्ञान असंभव है और मोक्ष-प्राप्ति भी असंभव है।
अत: सद्गुरु के समक्ष उपस्थित हो, मन ही मन संकल्प करें :
"गुरुदेव, आपकी परम कृपा से ही मुझ में गुरुता आ सकती है। अतः जब तक मुझ में गुरुता का प्रादुर्भाव न हो, तब तक मैं शास्त्रोक्त पद्धति का अवलवन करते हुए, सादर, श्रद्धापूर्वक आपकी उपासना में रत रहुंगा।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org