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ज्ञानसार
विरत का प्राप्ति होती है। दान-लाभ-भोगोपभोग और बीर्यादि श्रेष्ठ लब्धियों का आविर्भाव होता है ।
न जाने प्रशस्त निमित्त-आलंबनों का जीवात्मा पर कैसा तो अदभुत प्रभाव है ! पारसमरिण के स्पर्श मात्र से लोहा सुवर्ण बन जाता है । उसी तरह देव-गुरु के समागम से मिथ्यात्त्व, कषाय, अज्ञान, असंयम प्रादि औदयिक भावों से मलीन प्रात्मा समकित, सम्यग्ज्ञान, संयम आदि गुणों से युक्त, स्वच्छ सुशोभित बन जाती है । क्षायोपशमिक धर्म भी तब तक ही आवश्यक हैं, जब तक क्षायिक गुरणों की प्राप्ति न हो ! क्षायिक गुण आत्मा का मूल स्वरूप है । इसके प्रकट होते ही क्षायोपशमिक गुणों की भला आवश्यकता ही क्या है ? ऊपरी मंजिल पर पहुँच जाने के बाद सीढ़ी की क्या गरज है ? प्रौदयिक भाव के भूगर्भ से क्षायिक भाव के रंगमहल में पहुँचने के लिये क्षायोपशमिक भाव सिढ़ी समान हैं।
जिस तरह चन्दन को सौरभ उसका स्थायी भाव है, उसी तरह क्षायिक धर्म भी आत्मा का स्थायी भाव है । हर जीवात्मा में क्षायिक ज्ञान, दर्शन और चारित्र सहज स्वरुप में विद्यमान है ।।
क्षायोपशमिक क्षमादि गुणों के परित्याग का नाम ही धर्मसंन्यास है। उक्त तात्त्विक धर्मसंन्यास, सामर्थ्य योग का धर्म-संन्यास माना जाता है। 'द्वितीयापूर्वकरणे प्रथमस्तात्त्विको भवेत्' 'योग दृष्टि समुच्चय' नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि क्षायोपशमिक धर्म के त्याग स्वरुप धर्म-संन्यास माठवें गुरणस्थान पर द्वितीय अपूर्वकरण करते समय होता है । सम्यगदर्शन की प्राप्ति के पहले जिस अपूर्वकरण का अनुसरण किया जाता है, बह अतात्त्विक धर्म-संन्यास कहलाता है ।
गुरुत्वं स्वस्य नोबेति, शिक्षासात्म्येन यावता ।
प्रात्मतत्त्वप्रकाशेन, तावत् सेट्यो गुरुत्तम : ॥५।।६१॥ अर्थ :- जब तक शिक्षा के सम्बक परिणाम से प्रात्मस्वरूप के ज्ञान से
गुरुत्व प्रकट न हो, तब तक उत्तम गुरु का आश्रम लेना चाहिये
[माराधना करनी चाहिये । विवेचन :- जिस तरह सांसारिक स्नेही-स्वजनों का त्याग करना है. उसी तरह अभ्यंतर -प्रांतरिक स्वजनों के साथ अटूट नाता जोड़ना
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