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त्याग
पाया हूँ। फिर वही मोह-मदिरा के छलछलाते जाम, प्यार-दुलार भरे नखरे, अजीब बेहोशी, पुनःमूर्छा और पुनः उन का डंडा लेकर पिल पड़ना । लेकिन होश कहाँ ? उनके मादक रूप, रंग और गंध का आकर्षण मुझे पागल जो बनाए हुए है !
"लेकिन अब बहत हो चका । मैंने सदा के लिये इन ममता, माया रुपी वेश्याओं को तिलांजलि दे दी है । समता को अपनी प्रियतमा बना लिया है। उसके सहवास और संगति में मुझे अपूर्व शान्ति, अपरंपार सुख और असीम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है ।"
"इसी भाँति ससार के स्नेही-स्वजनों को भी मैंने परख लिये हैं, निकट से जान लिये हैं । अब में क्या कहूँ ? क्षण में रोष और क्षरण में तोष ! सभी स्वार्थ के सगे हैं । जहाँ देखो वहाँ स्वार्थ ! जहाँ जामो वहाँ स्वार्थ ! बस, स्वार्थ, स्वार्थ और स्वार्थ ! अत : मैंने उन्हें स्नेहीस्वजन बना लिया है, जो हमेशा रोष-तोष से रहित हैं । उनके पास में सिर्फ एक ही वस्तु है, सर्व जीवों के लिये मैत्री-भाव और अपार करुणा ! और वे हैं-निर्ग्रन्थ साधु-श्रमण ! वे ही मेरे वास्तविक स्नेहीस्वजन हैं ।"
इस तरह बाह्य परिवार का परित्याग कर आत्मा औदयिक भावों का त्यागी और क्षायोपशमिक भावों को प्राप्त करने वाला बनता है। प्रौदयिक भाव में निरन्तर डुबे रहने की वृत्ति को ही संसार कहा गया है । जहाँ तक हम इस वत्ति का परित्याग करने में असमर्थ रहेंगे, वहाँ तक संसार-त्यागी नहीं कहलायेंगे ।
धर्मास्त्याज्याः , सुसंगोत्था :, क्षायोपशमिका अपि ।
प्राप्य चन्दनगन्धाभ, धर्मसंन्यासमुत्तमम् ॥४॥६०।। अर्थ :- चन्दन की गध-समान श्रेष्ठ धर्म-संन्यास की प्राप्ति कर, उसके
सत्मंग से उत्पन्न और क्षयोपशम से प्राप्त पवित्र धर्म भी त्याज्य हैं। विवेचन :- सत्संग से जीवात्मा में 'क्षायोपशमिक' धर्मों का उदय होता है । परमात्मा के अनुग्रह और सदगुरु की कृपा से मति ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन पर्यवज्ञान प्रकट होता है । देशविरति और सर्व
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