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१२. निःस्पृहता
स्पृहाएं कामनाएं और असंख्य अभिलाषाओं के बंधन से अब तो मुक्त बनोगे ? बिना इनसे मुक्त हुए, बंधन काटे, तुम निर्लेप नही बन सकते ! प्रिय आत्मन् ! जरा तो अपना और अपने भविष्य का ख्याल करो ! आज तक तुमने स्पृहाओं की धू-धू प्रज्वलित अग्निशिखाओं की असह्य जलन में न जाने कितनी यातनाएँ सही हैं ? युगयुगान्तर से स्पृहा के विष का प्याला गले में ऊंडेलते रहे हो, पोते रहे हो । क्या अब भी तुप्त नहीं हुए ? और भी पीना बाकी है ? नहीं, नहीं, अब तो नि:स्पृह बनना ही श्रेयस्कर है ! मन की गहरायी में दबी स्पृहाओं को जड़मूल से उखेड कर फेंक दे ! और फिर देख, जीवन में क्या परिवर्तन आता है ? अकल्पित सुख, शांति और समृद्धि का तूं धनी बन जाएगा ! साथ ही आज तक अनुभव नहीं किया हो ऐसे दिव्यानद से तेरी आत्मा आकंठ भर जायेगी ! तू परिपूर्ण बन जायेगा ।
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