________________
वियषक्रम-निर्देश
४६७
4 तीसवाँ अष्टक है ध्यान का !
ध्याता, ध्यान, और ध्येय की एकता प्रस्थापित करनेवाला मुनिश्रेष्ठ कभी दुःखी नहीं होता । निर्मल अंतरात्मा में परमात्मा का प्रतिबिंब पडता है । फलस्वरूप तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करता है.... और तपमागे का पथिक बनता है, अतः * इकतीसवाँ अष्टक है तप का ।
बाह्य और आभ्यन्तर तप की आराधना से वह सर्व-कर्मक्षय रूपी मोक्ष-पद की प्राप्ति की दिशा में गतिमान होता है ! उस की सभी दृष्टि से विशुद्धि होती है ! ऐसी आत्मा परम प्रशम-परम माध्यस्थ्य भाव को धारण करती है, अतः * बत्तीसवाँ अष्टक है सर्वनयाश्रय का !
सर्व नयों का स्वीकार करता है । कोई पक्षपात नहीं, ना ही भ्रान्ति ! परमानन्द से भरपुर ऐसी सर्वोष्कृष्ट आत्मभूमिका प्राप्त कर वह सदा के लिए कृतकृत्य बन जाता है ।
आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने के लिए यह कैसा अपूर्व मार्ग है ! अब तो लक्ष्य चाहिये ! हमारे दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है ! आत्मा की ऐसी सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने का भगीरथ पुरुषार्थ चाहिये । ३२ विषयों को हृदयस्थ कर और उस पर सतत चिंतन-मनन कर, उस दिशा में प्रयाण का संकल्प करना है ।
卐आत्म-तत्त्व की श्रद्धा, आत्म-तत्त्व की प्रीति और आत्म-तत्त्व के उत्थान की उत्कट भावना....क्या सिद्ध नहीं कर सकती ? कायरता अशक्ति और आलस्य को दूर कर अदम्य उत्साह के साथ अपूर्व स्फति से सिद्धि के मार्ग पर प्रस्थान कर दो । इसके बिना दुःख, दर्द क्लेश और संताप का अन्त आनेवाला नहीं है । ध्यान रखो, जन्ममृत्यु का चक्र रुकनेवाला नहीं है, वह तो निरंतर निर्बाध गति से चलनेवाला ही है और कर्मों की श्रृखलाएँ यों सहज में टूटने वाली नहीं हैं, अत: मानव-जीवन का आत्मतत्त्व के उत्थान के लिए ही उपयोग करें । प्रतमेवैकं जानिथ आत्मनमन्या वाची किमूचथामृतस्यैव सेतुः ।
- मुण्डकोपनिषद्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org