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योग
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इस तरह ज्ञानयोग एवं क्रियायोग में पूर्णतः समरस हो, मुनि उसकी आराधना करते हैं, जबकि अपुनर्बन्धक, श्रावक वगैरह में इसका प्रारंभ होने से उनमें सिर्फ योगबीज ही होता है ।
कृपानि वसंवेग-प्रशमोत्पत्तिकारिण : ।
भेदाः प्रत्येकमत्रेच्छा-प्रवृत्तिस्थिरसिद्वयः ॥३॥२११॥ अर्थ : प्रत्येक योग के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता एवं सिद्धि-चार भेद होते
हैं। जो कपा, संसार का भय, मोक्ष की कामना और प्रशम की
उत्पत्ति करने वाले हैं। विवेचन :- कुल पाँच योग हैं । प्रत्येक योग के चार-चार भेद अर्थात् सब मिलाकर बीस प्रकार होते हैं। हर एक योग के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि- ये चार भेद हैं ।
प्रथम योग है-'स्थान' ।इससे आसन और मुद्राओं की इच्छा जागत होती है। तत्पश्चात् उसमें प्रवृत्ति होती है, अर्थात् जिस धर्मक्रिया में जो आसन और मुद्रा आवश्यक है, उसे करें। तब उसमें स्थिरता का प्रादुर्भाव होता है। मतलब आसन/मुद्रा के द्वारा चंचलता, अरुचि और उदासीनता दूर होती है । इस तरह आसन और मुद्रा सिद्ध होती है।
द्वितीय योग है- 'उण' । जिस क्रिया में जिन सूत्रों का उच्चारण करना हो, उन सूत्रों का पर्याप्त अध्ययन करने की इच्छा प्रकट होती है। तत्पश्चात् संबंधित क्रियाओं में सूत्रों का उच्चारण करने की प्रवृत्ति करें। सूत्रों के उच्चारण में स्थिरता आती है, यानी कभी तेज गति तो कभी मंद गति, ऐसी अस्थिरता नहीं रहे। इस तरह सूत्रोच्चार की सिद्धि प्राप्त होती है।
तृतीय योग है-'अर्थ'। संबंधित सूत्रों के अर्थ का ज्ञान आत्मसात् करने की भावना पैदा हो । अर्थज्ञान प्राप्त करने की प्रवृत्ति करे । अर्थ-ज्ञान स्थिर बने, यानो दुबारा वह विस्मरण न हो जाए, इस तरह अर्थज्ञान की ऐसी सिद्धि प्राप्त करें कि वह जो-जो धर्म क्रियायें करे, स्वाभाविक रुप से उसका अर्थोपयोग होता रहे।
चतुर्थ योग है 'आलंबन' । आलंबन-स्वरुप जिन-प्रतिमादि के प्रति प्रीतिभाव पैदा हो, उस का पालंबन ग्रहण करने की प्रवृत्ति करें और मन निःशंक, निर्भय बन उस में स्थिर हो जाए। साथ ही ऐसी स्थिरता
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