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________________ ४१२ ज्ञानसार प्राप्त करें कि दूसरों को भी उसके प्रति आकर्षित करें। _ 'रहित' निर्विकल्प समाधि-स्वरुप है । अर्थात् उसमें इच्छादि का प्रश्न ही नहीं पैदा होता । परन्तु वैसे निर्विकल्प योगी-पुरुषों की सदैव प्रशंसा करे और खुद वैसा बनने के उपायों में प्रवृत्ति करे। इससे मन स्थिरता प्राप्त करता रहे और वह ऐसा निरालंबन योगी बन जाए कि अन्य जीवों को भी अपने योग की तरफ आकर्षित कर दे। ___इन योगों से आत्मा में अनुकंपा, निर्वेद, संवेग और प्रशम भाव पैदा होते हैं; अर्थात् आत्मा का संवेदन ही ऐसा बन जाता है । दीन-दुःखी जीवों को देखकर, मन ही मन उनका दुःख-दर्द दूर करने की उत्कट भावना पैदा हो। द्रव्य से दुःखी जीवों का दुःख दूर करने की इच्छा प्रकट हो जाए कि वह दीन-दुःखियों की कभी उपेक्षा न कर सके। सांसारिक सुखों से विरक्त बन जाए। उसे वह कारावास समझे। निर्जन श्मशान समझे। सदा कर्म-बन्धनों से मुक्त होने की ही पैरवी करे। संसार के सुख भले ही चक्रवर्ती या इन्द्र के हों, भूल कर भी उनकी तरफ आकर्षित नहीं होता। योगी का मन सदा-सर्वदा आत्मा की परिशुद्ध अवस्था प्राप्त करने के लिए तरसता है। 'मैं कब मोक्ष पाऊँगा ?' यह तमन्ना निरंतर बनी रहती है। सदैव वह मोक्ष-सुख की ओर ही आकर्षित होता है। उपशम का वह शान्त-प्रशान्त सागर होता है । कषायों का उन्माद उसके मन को स्पर्श तक नहीं कर सकता और ना ही उसे कभी अपने ध्येय से विचलित कर सकता है। उस का मुखमंडल अहर्निश शान्तनिश्चल भावों से देदीप्यमान होता है । इच्छादि योगों का यह फल है। अणुकंपा निवेओ, संवेगो होई तह य पसमु त्ति। एएसिं अणुभावा, इच्छाईणं जहा संखं ।। -योगविंशिका इच्छादि-योगों के अनुभाव हैं-अनुकंपा, निर्वेद, संवेग और प्रशम । इन अनुभावों के प्रकटीकरण हेतु योगी को निरन्तर पुरुषार्थ करना चाहिए । इनसे आत्मा अपूर्व आनन्द का अनुभव करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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