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तक पहुँचना है । ऐसा भी होता है कि एक ही शब्द अलग-अलग स्थान पर ग्रथं भेद प्रदर्शित करता है, उसे पूरी तरह से समझना चाहिये ! ठीक वैसे ही एक ही अर्थ सर्वत्र काम नहीं आता ! उसका निर्णय, तत्कालीन द्रव्य, क्षत्र और काल के माध्यम से करना चाहिए और तत्पश्चात् अन्य जोवों को उसका अर्थ-बोध कराने का कार्य आरम्भ करना चाहिए.. ।
शास्त्र
परमात्मा जिनेश्वरदेव के धर्मशासन में किसी एक ग्रंथ अथवा शास्त्र का पठन-पाठन करने से तत्त्वबोध नहीं होता, ना ही कोई काम चलता है । अन्य धर्मों में, सारांश एकाध धमग्रन्थ में उपलब्ध होता है, जैसे : गीता, बाइबल और कुरान । लेकिन जैनधर्म का सार एक ही ग्रन्थ तक सीमित हो जाएँ इतना वह संक्षिप्त नहीं है । जैनधर्मप्रणित पदार्थज्ञान, जीवविज्ञान, खगोल और भूगोल, मोक्षमार्ग, शिल्प और साहित्य, ज्योतिषादि ज्ञान-विज्ञान इतना तो विस्तृत और विशाल - विराट है कि उस का संक्षेप किसी एक ग्रन्थ में समाविष्ट होना असंभव है । कई लोग जानना चाहते हैं कि भगवद् गोता, बाइबल और कुरान की तरह क्या जैनधर्म का भी कोई एक प्रमाणभूत ग्रन्थ है ? प्रत्युत्तर में उन्हें कहना पडता है कि जैनधर्म सम्बंधित ऐसा कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है । जैनधर्म का अध्ययन, मनन, और चिंतन करने के लिए व्यक्ति अपने जीवन का बहुत बडा भाग खर्च करे, व्यतीत करे, तभी इसकी गरिमा, ज्ञान और सिद्धांतो को समझ सकेगा ।
साधु-मुनिराज के पीछे धनोपार्जन, भवन-निर्माण, परिवार परिजनों की देख भाल आदि किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं होती । भारत की प्रजा .... उस में भी विशेष रूप से जैनसंघ, मुनि की सारो आवश्यकताओं की पूर्ति भक्ति भाव से करता है । अतः श्रमणों का एक ही कार्य रह जाता हैं पचमहाव्रतमय पवित्र जीवन जोना और शास्त्राभ्यास करना । इसके अतिरिक्त उन्हें किसी भी बात की चिंता नहीं, परेशानी नहीं । चमचक्षु की महत्ता से बढकर शास्त्र चक्षु की तेजस्विता का मूल्यांकन करना चाहिए । जितनी चिंता और सावधानी चर्मचक्षु के सम्बंध में बरती जाती है, उससे अधिक चिंता और सावधानी शास्त्र - चक्षु के सम्बंध में लेनी आवश्यक है । शास्त्र दृष्टि के प्रकाश में विश्व के पदार्थ स्वरुप का दर्शन होगा, भ्रांतियाँ के बादल बिखर जाएँगे और विषय -
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